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जून, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वह मंजर.... जो दर्द का समंदर है

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याद आता है मुझे जब वह मंजर जब चल पड़ा कोई अपना अनंत यात्रा पर... देखा आंसुओं का समंदर टूटती हुई मां बदहवास सी टूटी पिता की कमर देखते असहाय से लुटते हुए खुद को चला गया जब पुत्र-धन वर्षों की तपस्या का हुआ ऐसा हनन देख ऐसा मंजर मैं उठी सिहर कर्ण पट फाडता रूदन बेसुध पत्नी के छिन गए सभी श्रृंगार...... हाय! वह मंजर... विचलित, विकलित बेसुध परिजन लुट  गया सर्वस्व खाली हाथ, खाली जीवन रह गया अमिट सूनापन हृदय को चीरता हर कोई बिसूरता जाना असमय किसी का सब कुछ बिखेर देता है बड़ा दर्दनाक होता है वह मंजर जब उमडता दर्द का समंदर नहीं चलता किसी का बस रह जाता खड़ा इंसान बेबस ईश्वर के आगे पटकता सिर फिर रह रह कर याद आता वह मंजर कमी...! किसी की कोई नहीं कर पाता पूरी तब आता है याद बार-बार, हरबार वह दर्दनाक मंजर उमड़ पडता है फिर दर्द का समंदर  ! छोटी - छोटी बातो में दिन हो या कि रातों में जागती स्मृतियाँ दिल तोडतीं हैं बार-बार दिला देती हैं याद वह मंजर कांपता शरीर कसक उठता दिल छलक जाते अश्रु जब याद आता वह मंजर उमडता आंसुओं का समंदर ! (अभिलाषा चौहान)

" सागर की लहर "

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मेरा हृदय प्यार का सागर है, तुम उस सागर की उठती हुई लहर हो। लहरों की आवाज मेरे दिल की पुकार है, जब तुम मुझे आहत करते हो, तो सागर में तूफान आता है ऐसा तूफान जो कर देता है खड़ी अहम् की दीवार... तुम समझ नहीं पाते , मैं समझा नहीं पाती, तुम और मैं के भ्रम के कारण एक - दूसरे पर आरोप लगाते हैं। सागर, सागर है, लहर, लहर है , यही मन का भ्रम है ! क्या सागर के बिना लहर का कोई अस्तित्व है? नहीं,  यही अटूट सत्य है.. यही अटूट सम्बन्ध है .. जिसे समझने के बाद जिंदगी बन जाती है, सागर की लहर लहरों का सागर । (अभिलाषा चौहान) 🙏🙏🙏🙏

दर्द का समंदर

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जब टूटता है दिल धोखे फरेब से अविश्वास और संदेह से नफरतों के खेल से तो लहराता है दर्द का समंदर रह जाते हैं हतप्रभ अवाक् इंसानों के रूप से सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी पड़ जाती असमंजस में बहुरूपियों की दुनिया फिर रास नहीं आती उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में भटकता है जीवन तलाशते किनारा जीवन की नैया को नहीं मिलता सहारा हर और यही मंजर है दिल में चुभता कोई खंजर है मरती हुई इंसानियत से दिल जार जार रोता है ऐसे भी भला कोई इंसानियत खोता है जब उठता दर्द का समंदर हर मंजर याद आता है डूबती नैया को कहां साहिल नजर आता है!!! (अभिलाषा चौहान)

" प्रेम ही सत्य है"

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प्रेम ही सत्य है   प्रेम ही शिव है    प्रेम ही सुंदर है      प्रेम ही सार है । प्रेम ही सुगंध है     प्रेम ही तरंग है      प्रेम में रचा-बसा       मनुज का संसार है ।  प्रेम ही अतुल्य है     प्रेम ही अमूल्य है       प्रेम ही शाश्वत है       साक्षात निराकार है। प्रेम में त्याग है  प्रेम में समर्पण है   प्रेम ही जगती का जीवन    प्रेम ही सगुण साकार है ।  प्रेम में रचे बसे   पंच महाभूत हैं    प्रेम ही से सारी       सृष्टि उद्भूत है। प्रेम के ढाई आखरों में  त्रिदेवों की शक्तियां समाई हैं   महापुरूषों की वाणी    मानवीय महानता समाई है । प्रेम के ढाई आखर  वेदों का सार हैं    गीता का ज्ञान है     कुरान की पुकार है । इन आखरों में छिपा   ईश्वरीय प्रकाश है    जीवन की आस है     आस्था और विश्वास है। इन आखरों के ज्ञान से  बना मनुज महात्मा     इनसे रहित मनुज        बन गया दुरात्मा। प्रेम के ढाई आखर ही     इस सृष्टि का मूल हैं       इनसे रहित मनुज जीवन           निस्सार और निर्मूल है। ****अभिलाषा चौहान******

" बूढ़ा दरख्त "

वर्तमान परिवेश पर अपने विचार साझा कर रही हूं..... ************************************************************** जाने कितने वर्षों से वह बरगद का वृक्ष उस चौपड पर खड़ा अतीत की न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी था , न जाने कितने जीव-जंतुओं, पथिकों की शरणस्थली था। आज उदासी से घिरा था,वर्तमान परिवेश में उसे अपने ऊपर आने वाले संकट का एहसास था, लोगों की बदली हुई मानसिकता ने उसे हिला दिया था ! सोच रहा था, क्या समय आया है जिससे स्वतंत्रता व ऐशोआराम में बाधा पडे, उसे रास्ते से हटा दो, चाहे वे हरे-भरे वृक्ष हों या फिर बूढ़े मां-बाप ! देखती हूं तो सोचती हूं क्या वास्तव में हम राम-कृष्ण व श्रवण के देश में रहते हैं ? क्या यही हमारे नैतिक मूल्य हैं ? ये कैसे संस्कार हैं, जो वृद्ध माता-पिता को दर - दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं या वृद्धाश्रम जाने को मजबूर कर देते हैं। कहां गई हमारी मानवता जो ईश्वर तुल्य माता-पिता पर हाथ उठाने में भी किसी को शर्म नहीं आती! माना वैचारिक मतभेद बढ़ रहे हैं संबंधों में तल्खियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या यही समाधान है? आज जब कहीं ऐसा होते देखती हूं तो मन खून के आंसू

रिश्ते कितने अजीब होते हैं

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रिश्ते कितने अजीब होते हैं कुछ जन्म से तो कुछ किस्मत से नसीब होते है कुछ बन जाते हैं राह चलते - चलते अपने-अपने नसीब होते हैं। रिश्ते महकाएं जिन्दगी फूलों सी रिश्ते कांटों सी चुभन भी देते हैं रंग भरते हैं जिन्दगी में रिश्ते बदरंग भी जिन्दगी को बना देते हैं। कुछ के जाने से जान जाती है कुछ दिल के करीब होते हैं रिश्ते कितने अजीज होते हैं रिश्ते कितने अजीब होते हैं। रिश्तों से मिलता नाम जिन्दगी को रिश्ते बेनाम भी होते हैं जीने का मकसद बने रिश्ते जिन्दगी से बेदखल करें रिश्ते । खुशियों का पैगाम हैं ये रिश्ते खून के आंसू भी रूलाते हैं बदजुबानी से टूटते रिश्ते स्वार्थ से झुलस जाते हैं। बोझ बनते जा रहे रिश्ते दम तोड़ रहे हैं रिश्ते घुट रहा इंसानियत का दम हैवानियत से भरे रिश्ते लोग कितने अजीब होते हैं जो समझ न सकें रिश्ते रिश्ते हरदिल अजीज होते हैं रिश्ते कितने अजीब होते हैं (अभिलाषा चौहान) चित्र गूगल से साभार 

दीपक

वर्तिका-तेल करते दीप का निर्माण इनके बिना दीप अस्तित्व विहीन इनका संयोग करता दीप को परिपूर्ण दे जग को प्रकाश कर दूर तिमिर-गहन अंधकार पारावार दीप बन जीवन प्रतीक, कर मुकुलित मन आशा की किरण जगाता है। लेकिन दीप तभी दीप है, जब वर्तिका और तेल से परिपूर्ण हो दीप देता है संदेश मनुष्य को प्रतिपल प्रतिक्षण देख मुझे जल मेरी तरह मानवता का दे संदेश पढा मनुष्यता का पाठ कर औरों के लिए अर्पण सच, तभी तू सच्चा मानव है सीख दीप से लै सदैव स्वयं जलता है, जल-जल कर राह दिखाता है कर अपना समर्पण एक अमिट इतिहास रचाता है यह दीप है प्रतीक अनंत इच्छाओं का आस्थाओं, भावनाओं और विश्वास का उम्मीद की किरण है जीवन की उमंग है झिलमिलाती हुई यह दीप की लौ दीप जो सदा जलता है औरों के लिए बनो दीप रहो दीप्त फैला दो प्रकाश मिट जाए अंधकार छाए हर्ष चहुंओर सुंदर अति सुंदर बन जाए अपना संसार (अभिलाषा चौहान)

मेरा घर कुछ कहता है मुझसे.....

आज कल भारतीय परिवारों का स्वरूप कुछ बदल गया है या कहें कि परिवारों के बिखरने ने घरों की परिभाषा बदल दी है। उसी पर कुछ शब्द प्रस्तुत कर रही हूं..... मेरा घर कुछ कहता है मुझसे.. बनाना है यदि मकान को घर, तो रहना सीखो प्यार से... जीना सीखो दूसरों के लिए.... सीखो-त्याग समर्पण, हंसना-हंसाना... जिन्हें भुला दिया है तुमने, बांट दिया है घर को, सरहदों में......! बांध दिया है रिश्तों को , स्वार्थ में ...? कर दिया है अनदेखा संबंधों को..... । रह गई है नीरसता बन गया है जेल...! स्वार्थ की हथकडियां अहम् की बेड़ियाँ झुकने नहीं देती..। और तुम बनाना चाहते हो मकान को घर ? उठो सोचो क्या खोया , औ क्या पाया है तुमने ? दरकते रिश्ते सरकते सुख खंडहर जीवन अमिट सूनापन कुछ भी तो नहीं है पास तुम्हारे......? जीना सीखो जैसे कि पहले जिया करते थे जहां रिश्ते खिलते थे..! स्नेह फलता था जीवन हंसता था आज जीवन मर रहा है नफरत जी रही है..... घर मकान न बन जाए उससे पहले चलो जी लें कुछ पल अपने लिए अपनों के लिए.... ।(अभिलाषा) 🙏🙏

बरखा अब तो आओ न....!

तपती धरती तपता अंबर बरखा अब तो आओ न। गरम हवा के झोंको से, हमको अब तो बचाओ न आग उगलता सूरज देखो तन को कैसे झुलसाता है? तडप रहे है सभी जीव, कोई चैन कहां पर पाता है। रूठ गई हो जबसे तुम, शीतलता भी चली गई, प्यासी धरती राह निहारे, मन न अब हरसाता है ! नित मेघों की राह निहारे, कोयल देखो कूक रही, मोर पपीहा और दादुर भी, राह तुम्हारी तकतें हैं, कहां गई हो बरखा बोलो, हमसे तुम क्यो रूठ गईं, कैसे तुम्हें मनाएं बरखा, जो खुशियां तुम बरसाओ न, बरखा अब तो आओ न । आके नभ पर छा जाओ न, छाई धुंध जो इस धरती पर, आकर उसे मिटाओ न, सूख गए हैं कंठ हमारे, उनकी प्यास बुझाओ न, जीवन नवजीवन देनेवाली, अब तो आ भी जाओ न, बरखा अब तो आओ न.....! (अभिलाषा)

" बतलाना मेरा स्थान ".......!

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सारा आसमान तुम रख लेना.... मुझको दे देना बस कोना, जिसमें जब चाहूं मैं उड लूं ! थोडी सी मैं मन की कर लूं ! छूना चाहूं मैं आकाश, पर रह जाता है मन में काश.....। पर मेरा है विश्वाश... कभी तो होगी पूरी आस । नहीं चाहती पूरा दिल मैं... बस चाहूं छोटा सा कोना, जिसमें मेरा अश्क बसा हो  तुमको मेरी याद सदा हो, न खो जाऊं कहीं भंवर में साथी हूं जीवन के सफर में दे देना इतना सम्मान, रख लेना तुम मेरा मान..... । नहीं उपेक्षित बन जी सकती, बतलाना मेरा स्थान ! सारा जहां तुम रख लेना... मुझको दे देना बस कोना, मैं अर्द्धांगिनी पहले तुम्हारी बाद में आई जिम्मेदारियां सारी ! मत छीनना ये पहचान, बतलाना मेरा स्थान । इसमें कहीं मैं खो न  जाऊं, ढूंढूं खुद को तो भी न पाऊं ! रख लेना बस इतना ध्यान, बतलाना मेरा स्थान !!! ********अभिलाषा चौहान******** चित्र गूगल से साभार 

हूं मैं एक अबूझ पहेली.....!

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एक भारतीय गृहिणी या कहें नारी बेटी, पत्नी और मां के रूप में ही जानी जाती है। इन रूपों में उसका अपना अस्तित्व कहीं खो जाता है, उसकी व्यथा को अभिव्यक्त करने की छोटी सी कोशिश .......  भीड़ से घिरी लेकिन बिल्कुल अकेली हूं मैं हां, एक अबूझ पहेली हूं मैं कहने को  सब अपने मेरे रहे सदा मुझको हैं घेरे पर समझे कोई न मन मेरा खामोशियो ने मुझको घेरा ढूंढूं मैं अपना स्थान... जिसका नहीं किसी को ज्ञान क्या अस्तित्व है घर में मेरा? क्या है अपनी मेरी पहचान? अपने दर्द में बिल्कुल अकेली हूं मैं एक अबूझ पहेली... सबका दर्द समझती हूं मैं बिना कहे सब करती हूं मैं कहने को गृहिणी हूं मैं हर हिस्से में बंटी हुई मैं इससे ऊपर कहां उठ पाती बस इतनी मेरी पहचान कितना दर्द समेटे हूं मैं जिसका नहीं किसी को ज्ञान। नहीं चाहिए मुझको धन-दौलत बस चाहूं थोडा अपनापन दे दो मुझको मेरी पहचान  केवल कोई यंत्र नहीं मैं स्वतंत्र हूं पर स्वतंत्र नहीं मैं हां, बिल्कुल अकेली हूं मैं हूं एक अबूझ पहेली मैं....? 🤔🤔🤔🤔अभिलाषा 🙄🙄🙄🙄

पर्यावरण दिवस

आज विश्व पर्यावरण दिवस है भाषणबाजी और कई तरह के ढोंग होंगे, पर क्या वास्तव में हम चिंतित हैं,  नहीं ! यदि होते तो पृथ्वी का यह हाल न होता। तापमान में वृद्धि और पीने के पानी की कमी का दंश बडे-बडे बंगलों और एसी में रहने वालों को नहीं झेलना पड़ता। महज कागजी कार्रवाई करके पर्यावरण की सुरक्षा करने वाले नौकरशाहों की कथनी-करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। मानसून पर निर्भर रहने वाले इस देश में पारंपरिक पेयजल  स्रोतों की उपेक्षा ने भयावह जल संकट खड़ा कर दिया है। हम निरंतर धरती का सीना फाड कर जलदोहन कर रहें है , पर कब तक?  नदियां हमने दूषित कर दी, वन हमने उजाड दिए, हरे - भरे वृक्षों को काटने में हम तनिक देर नहीं करते और बात करते हैं पर्यावरण की! बंजर होती धरती किसी को नहीं दिखती, तड़पते पशु-पक्षी किसी को नहीं दिखते, बस खानापूर्ति की जाती है और कुछ नही , नियम बन जाते हैं पालन हो रहा है या नहीं किसी को नहीं देखना  । मैंने बैंगलोर में एक घर देखा जहां घरमालिक ने पेड को काटा नहीं बल्कि छत ऐसे बनवाई की पेड़ घर के अंदर  आ गया नतमस्तक हो गई उस वृक्षप्रेमी के प्रति। ऐसा जज्बा हो तो बात बने, अंत में

"आज फिर व्यथित है मन"

आज फिर व्यथित है मन फिर याद आए वे पल-छिन जिन्हें हम कभी भुला न सके वो बचपन के दिन...... वो अपनापन वो लडना - झगड़ना रूठना-मनाना एक आवाज पर तुम्हारा दौड़े चले आना जिसके लिए तरसता है मन आज फिर व्यथित है मन ... । सुख-दुःख के साथी थे हम दूर होकर भी कितने पास थे हम सबकी खुशी में खुश रहने वाले कितने प्यारे और अनोखे थे तुम फिर कैसे चल दिए अकेले अनंत यात्रा पर. ...   ! हम सबका साथ छोड़कर हम सबका दिल तोडकर न कुछ कहा न कुछ सुना बड़े धोखेबाज निकले तुम आज फिर व्यथित है मन ... । ऐसे भी भला जाता है कोई बताओ कब हमारी आंखें न रोई खोजती हैं बस तुम्हें यादों के खंडहर में पर नहीं दिखते तुम कहीं..... बस याद आते हो बहुत याद आते हो दिल तब खून के आंसू रोता है ऐसे भी भला कोई अपनों से दूर होता है आज फिर व्यथित है मन तन्हा मन तन्हा जीवन ।     (अभिलाषा) भाई तुम्हें समर्पित मेरे व्यथित मन की पीड़ा 😢 😢 😢 😢 😢 😢