दर्द का समंदर

जब टूटता है दिल

धोखे फरेब से

अविश्वास और संदेह से

नफरतों के खेल से

तो लहराता है दर्द का समंदर

रह जाते हैं हतप्रभ

अवाक् इंसानों के रूप से

सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी

पड़ जाती असमंजस में

बहुरूपियों की दुनिया फिर

रास नहीं आती

उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें

आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में

भटकता है जीवन

तलाशते किनारा

जीवन की नैया को

नहीं मिलता सहारा

हर और यही मंजर है

दिल में चुभता कोई खंजर है

मरती हुई इंसानियत से

दिल जार जार रोता है

ऐसे भी भला कोई

इंसानियत खोता है

जब उठता दर्द का समंदर

हर मंजर याद आता है

डूबती नैया को कहां

साहिल नजर आता है!!!

(अभिलाषा चौहान)




टिप्पणियाँ

  1. शुभ संध्या सखी
    आपकी ये रचना हमने कल की विविधा में ली है
    सूचनार्थ निवेदन है कि इस रचना को अगले सोमवार को प्रकाशित होने वाली
    पच्चीसवें विशेषांक के लिए भी रक्षित कर ली गई है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद सखी यशोदा जी 🙏 आपके सानिध्य में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। इसी आशा में.....

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 02 जुलाई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह उम्दा लाजवाब आज के सच का आईना।

    जवाब देंहटाएं
  5. सादर आभार 🙏 सखी कुसुम जी

    जवाब देंहटाएं
  6. अत्यंत मार्मिक लेखन अभिलाषा जी दर्द के समन्दर की लहरें सबसे ज्यादा प्रबल वेगवान होती हैं !!!!

    जवाब देंहटाएं
  7. हां, रेणु जी वर्तमान में अपने आस-पास जो
    कुछ घट रहा है, उसे देखकर लगता है कि
    सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था में जिस स्वार्थपरता ने प्रवेश किया है उसने ही यह मंजर उपस्थित किया है।

    जवाब देंहटाएं

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