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जून, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संकट लगते छुई-मुई

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पीड़ा की गगरी भरकर के जीवन की शुरुआत हुई अंगारों पर लोट-लोट कर संकट लगते छुई-मुई। उद्वेलित हो कहती लहरें रूकना अपना काम नहीं तूफानों को करले वश में नौका लगती पार वही। सागर से चुनता जो मोती प्यासी जिसकी ज्ञान कुईं। अंगारों पर-------------।। कर्म तेल की जलती बाती दीपक का तब मान यहाँ सुख-शैया के सपने देखे उसकी अब पहचान कहाँ उड़ता फिरता नीलगगन में औंधे मुँह गिर पड़ा भुंई। अंगारों पर --------------।। पग के छाले जिसे हँसाए आँसू जिसके मित्र बने। ओढ़ दुशाला हिय घावों का उसने चित्र विचित्र चुने कष्ट हँसे जब पुष्प चुभोये कंटक की बरसात हुई। अंगारों पर लोट-लोट कर संकट लगते छुई-मुई।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

देख दशा तब काँपी

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झंझावात में घिरा जीवन चिंताओं की वापी। झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। चाँद जलाता सूरज जैसे, पवन लगाती चाँटे। फूस झोंपड़ी सा तन सुलगे अंतस चुभते काँटे। साया साथ छोड़ के बैठा भय से नैना ढाँपी। झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। हंसा पिंजर में बंदी है, तड़प-तड़प रह जाए। उड़न खटोला कब ये बैठे, कब पी से मिल पाए। माया मकड़जाल सी लिपटी, देख दशा तब काँपी झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। पल में रूप बदलता ये जग, होती घोर निराशा। तन ही अपना साथ न देवे, किससे करना आशा। दूर-दूर तक धुंध छाई है, राह न जाए नापी झूला झूलूँ दुविधाओं में झूलत-झूलत हाँपी।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

टूट गया जब मन का दर्पण

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टूट गया मन का जब दर्पण प्रेम फलित फिर कैसे होता निज भावों की शव शैया को अश्रुधार से नित है धोता। आस अधूरी प्यास अधूरी जीने की कैसी मजबूरी साथ-साथ चलते-चलते भी नित बढ़ती जाती है दूरी नागफनी से उगते काँटे विष-बीजों को फिर भी बोता निज भावों----------------।। तिनका-तिनका बिखरा जीवन एक प्रभंजन आया ऐसा सुख-सपनों में लगी आग थी संबंधों पर छाया पैसा। पलक पटल पर घूम रहा है एक स्वप्न आधा नित रोता। निज भावों------------------।। प्याज परत सा उधड़ रहा है रिश्तों का ये ताना-बाना समय बीतते लगने लगता हर कोई जैसे अनजाना उजडे कानन में एकाकी भटक रहा सब खोता-खोता। निज भावों-----------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

स्वतंत्र हूँ मैं

स्वतंत्र हूँ मैं, हाँ बिल्कुल स्वतंत्र कुछ भी कर सकता हूँ। राह के रोड़े चुटकियों में हटा सकता हूँ ये प्रकृति , मेरे हाथों का खिलौना है खेल सकता हूँ मनचाहे खेल। मुझे पसंद हैं वो पहाड़ जो मैंने स्वयं निर्मित किए हैं कूड़े के ढेर से। साफ-सफाई मुझे कहां भाती है। पक्षियों के नीड़ो में मेरा ही बसेरा है आसमान को काले धुएँ से घेरा है। ये देश मेरा है, मुझे पूर्ण स्वतंत्रता है दीवारों पर चित्रकारी करने की। जाति-धर्म,सम्प्रदाय के नाम पर इसे बाँट सकता हूँ। अपने सुख के लिए औरों के घरों में आग लगा सकता हूँ। नीति नियम स्वयं ही बनाता हूँ भ्रष्टाचार से काम चलाता हूँ। मैं स्वतंत्र हूँ परंपराओं से मुझे बैर है। बंदिशों से लगता डर है। वृद्धाश्रम का चलन तभी तो बढ़ा है मेरा सुख सबसे बड़ा है। मेरी स्वतंत्रता सबसे बड़ी है उखाड़ी वो कील जो सुख में गड़ी है। पाप-पुण्य मुझे अब नहीं सताते हैं। स्वर्ग-नर्क भी प्राप्त करने आते हैं। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

जड़वत देखें सभी दिशाएँ

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भग्नावशेष चीख-चीख कर कहते अपनी कई कथाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। खंड-खंड पाषाण सुनाते हाहाकार मचा कब कैसा कालचक्र ने खेली चौसर लगता मानव पासे जैसा अधर्म-अनीति के बिखरे शव सुना रहे अपनी गाथाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। तिनके से मानव ने जब-जब लाँघी थी लक्ष्मण रेखाएँ। साँस घुटी तब-तब भूमा की प्रलय-प्रभंजन शोर मचाएँ युग अतीत में ढलते-ढलते भूले अपनी रोज गिनाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। सूखे आँसू की लीकों में जौहर की है छुपी कहानी लहू नहायी प्यासी धरती आँचल में देखे वीरानी खेल नियति भी हार चुकी है विडम्बनाएं चिह्न दिखाएँ दमित मौन से उपजे पीड़ा जड़वत देखें सभी दिशाएँ।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

पीपल पत्ते पीत हुए

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पतझड़ के आने से पहले पीपल पत्ते पीत हुए उजड़े-उजड़े इस जीवन के सब श्रृंगार अतीत हुए। मकड़ी जाले बुनती घर में झींगुर राग अलापे हैं उखड़ी-उखड़ी ये दीवारें गादुर भी अब व्यापे हैं। नयन झाँकते चौखट बाहर सपने सारे शीत हुए। उजड़े-------------------।। तिनका-तिनका जोड़-जोड़ कर सुंदर नीड़ बसाया था कितनी सुन्दर फुलवारी थी बसंत झूमता आया था समय प्रभंजन ऐसा लाया सुर विहीन सब गीत हुए उजड़े---------------------।। उड़े पखेरू पर फैलाकर नाप रहे अपना रस्ता भूल गए वे नीड़ पुराना प्रेम हुआ इतना सस्ता मौन गूँजते घर आँगन में कंपित से भयभीत हुए। उजड़े------------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

शिव वंदना

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अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित। अक्षर अच्युत चंद्र शिरोमणि विष्णुवल्लभ योगी दिगंबर त्रिलोकेश श्रीकंठ शूल्पाणि अष्टमूर्ति शंभू शशिशेखर ॐ प्रणव उदघोष अभ्यंतर ऊर्जित परम करे उत्साहित अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित।। अज सर्व भव शंभू महेश्वर नीलकंठ हे भीम पिनाकी त्रिलोकेश कवची गंगाधर परशुहस्त हे जगद्वयापी ॐ निनाद में शून्य सनातन है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित अनादि अनंत अभेद शाश्वत कण-कण में वह सदा प्रवाहित। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

ज्येष्ठ धूप में बंजारन

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सूखे पनघट कूप बावड़ी कोसों चलती पनिहारन रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण। दूर-दूर तक दिखे मरुस्थल आग उगलती धरती है दिखे नहीं है ठंड़ी छाया जो संताप को हरती है तपिश सूर्य से दग्ध हुई वो ज्येष्ठ धूप में बंजारन रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। जीवन रक्षा कैसे होगी प्रश्न सामने विकट खड़ा धरती का उर भी प्यासा है जल संकट यम रूप बड़ा बूँद-बूँद से सिंचित जीवन मिलें कहीं तो हो पारण रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। श्वेद बिंदु से तन लथपथ है नयनों में चिंता डोले खाली घट को लेकर चलती धीरे-धीरे हौले-हौले आसमान को तकती आँखें बदरा बरसे हो वारण रेतीले धोरों में भटके जल की बूँदों के कारण।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक

जलता है अंगार प्रिये

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हाहाकार मचा उर अंतर जलता है अंगार प्रिये लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए। जग-अंबुधि की अश्रु तरंगें अस्थिर होकर नृत्य करें छूने को तट व्याकुल होती हरसंभव वह कृत्य करें सुप्त वेदना झंकृत होती भावों का अवतार लिए लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए हाहाकार ----------------।। आकुल प्राण पथिक प्यासा सा, करुणा घट को ढूँढ रहा मृत संवेदन हीन हृदय में चेतनता को फूँक रहा आस जगाता मानवता हित मन में इक विश्वास लिए। लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए हाहाकार----------------।। दूर क्षितिज पर दृश्य अनोखा नवजीवन का भाव लिए जग के अश्रु देख व्यथित हो जागे कवि के भाव प्रिये हृदय पीर से शब्द पिघलते वर्ण वर्ण आकार लिए। लावा बहता पीड़ा बनकर एक तड़प साकार किए। हाहाकार ----------------।। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ' स्वरचित मौलिक।