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मन की बात

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आल्हा छंद में एक प्रयास ________________________ जीवन में संग्राम छिड़ा है, दुख से जलते हैं दिन-रात। धन का मूल्य चढ़ा सिर ऊपर, रिश्ते-नाते खाते मात।। हाल बुरा देखो जनता का, बढ़ती कीमत है बेहाल। नेता रंग बदलते ऐसे, जैसे गिरगिट चलता चाल।। मन में रावण पलता सबके, ऊपर से बनते हैं राम। सदियाँ कितनी बीत गई हैं, कब पूरे होते हैं काम। धर्म सभी का बनता धंधा, मन में उनके पलता खोट। घाव पुराने भरते कैसे, उनपर पड़ती रहती चोट।। सोते रहते सोने वाले, कैसे बदलेंगे हालात। आँखों पर सब पर्दा डाले कब सुनते हैं मन की बात।। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

प्रीत बनी है कारा

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"मीरा की व्यथा या हर वियोगिनी की पीड़ा" हृदय-भाव अब क्रंदन करते प्रीत बनी अब कारा तटबंधों को तोड़ चुकी है आँसू की ये धारा। पाषाणी प्रतिमा बन बैठे व्यथा न समझी मेरी नैनों के पट अब तो खोलो हो जाएगी देरी तड़प रही ज्यों जल बिन मछली कैसे पाऊँ किनारा।। सागर की लहरों सा उमड़े ज्वार प्रेम का साजन बनी चकोरी तुम को ताकूँ निठुर बने मनभावन तेरी जोगन बन‌ बैठी हूँ तुम पे हिय है हारा।। प्यासी हूँ मैं जनम-जनम की नित बरसे है सावन अंगारों पर लोट रही हूँ हूँ मैं बड़ी अभागन तेरी मूरत जीवन मेरा सौंप दिया निज सारा।। अभिलाषा चौहान

बदलेगी ये समय की धारा

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बीत जाएँगी ये भी घड़ियाँ डर-डर के मत जीना हो गहन तिमिर की भले हो बेला अमृत आस का पीना हो। छट जाएँगे बादल काले  सुख का सूरज निकलेगा धरती के आँगन में फिर से हर्ष का पंछी चहकेगा अडिग अविचल हो करो सामना निज विश्वास न झीना हो।। मानवता पर संकट आया मिलकर दूर भगाना है मन मंदिर के बुझे दीप को फिर से आज जलाना है जीवन पुष्पों सा महकेगा दुख कंटक जब बीना हो।। बदलेगी ये समय की धारा, काल पाश ढीला होगा। बरसेगी फिर से खुशियाँ भी दुख का मुख पीला होगा। चल उठ जा और जी ले जीवन गरल घूँट क्यों पीना हो।। अभिलाषा चौहान

ये तो सोचा न था...!!

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मास्क  दो गज की दूरी अपनों से दूर रहने की मजबूरी कैद में किलकारी मित्रों की यारी ऐसे भी होंगे दिन ये तो सोचा न था...!! पिंजरों में कैद  पंछी की तरह फड़फड़ाते छिन चुकी स्वच्छंदता का शोक मनाते अवसाद में डूबे अपनों के जाने का मातम मनायेंगे ये तो सोचा न था...!! चार कंधों की सवारी होगी न नसीब कोई अपना रहेगा न करीब दमघोटूँ बीमारी जिंदगी जिससे हारी डर और बेरोजगारी ये तो सोचा न था...!! अदृश्य दानव से उगेगी रक्तबीजों की फसल मुर्दों का भी होगा तोल घुटती चीखों की आवाज में खनकेंगे सिक्को के बोल पैसे से साँसों का लगेगा मोल हर रिश्ते की खुलेगी पोल कोई नहीं बोलेगा मीठे बोल ये तो सोचा न था...!! कृष्ण पक्ष सा जीवन चक्र उगाएगा चाँद या आएगी अमावस सूखे आँसुओं के समंदर में उठेगी टीस हर बात की लगेगी फीस ये तो सोचा न था...!! अभिलाषा चौहान

क्यों इतने हम मजबूर हुए

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अपने अपनों से दूर हुए सपने सारे फिर चूर हुए विपदा कैसी ये आन पड़ी क्यों इतने हम मजबूर हुए। साँसों पे तलवारें लटकी है आँखें धड़कन पर अटकी है हम रोएँ या फिर सिर पटके जीवन की राहें  भटकी है। आँखों के आँसू सूख चले मन में डर का बस भाव पले प्रभु पत्थर के बनकर बैठे जीवन जलता अंगार तले। कैसे मन में कोई धीर धरे ये घाव सदा रहते हैं हरे इक सूनापन इक सन्नाटा खुशियों के कैसे फूल झरें। पर धीरज मन में रख लेना साहस को हार नहीं देना ये समय गुजर ही जाएगा जीवन तो चलता ही है ना। हम जीतेंगे फिर ये बाजी कर लो बस अपना मन राजी हिम्मत से बढ़ना सब आगे ये काल बनेगा फिर माजी। माजी-अतीत, भूतकाल अभिलाषा चौहान