मन की बात
आल्हा छंद में एक प्रयास
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जीवन में संग्राम छिड़ा है,
दुख से जलते हैं दिन-रात।
धन का मूल्य चढ़ा सिर ऊपर,
रिश्ते-नाते खाते मात।।
हाल बुरा देखो जनता का,
बढ़ती कीमत है बेहाल।
नेता रंग बदलते ऐसे,
जैसे गिरगिट चलता चाल।।
मन में रावण पलता सबके,
ऊपर से बनते हैं राम।
सदियाँ कितनी बीत गई हैं,
कब पूरे होते हैं काम।
धर्म सभी का बनता धंधा,
मन में उनके पलता खोट।
घाव पुराने भरते कैसे,
उनपर पड़ती रहती चोट।।
सोते रहते सोने वाले,
कैसे बदलेंगे हालात।
आँखों पर सब पर्दा डाले
कब सुनते हैं मन की बात।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
बहुत ओजस्वी और खरी-खरी बानी!
जवाब देंहटाएंलेकिन 'मन की बात' तो महीने के आख़िरी रविवार को आती है. बुधवार को कैसा प्रसारण?
बेहतरीन सृजन जिसमें नवीनता की महक और सामाजिक चेतना की मुखर आवाज़ निहित है.
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएँ.
बहुत सुन्दर,आज के समय पर लिखी सटीक रचना 👌👌
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर ( 3041...दोषारोपण और नाकामी का दौर अब तीखा हो चला है...) गुरुवार 27 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहद खरी खरी रचना है।
जवाब देंहटाएंदरअसल आजकल मन की बात का संचालन होता है क्रियान्वयन नहीं।
वाह, आल्हा छन्द बचपन से सुनते आये हैं। उसी लय में यह पढ़ना स्पष्ट थापों की तरह मन में सुनायी पड़ा। आभार।
जवाब देंहटाएंभयावह स्थितियों में शर्मनाक हरकतें का सार्थक चित्रण...
जवाब देंहटाएंसोते रहते सोने वाले,
जवाब देंहटाएंकैसे बदलेंगे हालात।
आँखों पर सब पर्दा डाले
कब सुनते हैं मन की बात।।---वाह बहुत ही गहरी रचना।
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी बहुत ही बेहतरीन। वाकई परिस्थितियों से मन क्रोधित है। इस रचना के सारे शब्द वर्तमान परिस्थितियों को बेहतरीन ढंग से बयां कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएं"...
मन में रावण पलता सबके,
ऊपर से बनते हैं राम।
..."
"...
धर्म सभी का बनता धंधा,
मन में उनके पलता खोट।
..."
वाह!सखी ,वाह!गहरी बात 👌👌
जवाब देंहटाएंमन में रावण पलता सबके,
जवाब देंहटाएंऊपर से बनते हैं राम।
..."
"...
धर्म सभी का बनता धंधा,
मन में उनके पलता खोट।
बहुत ही उमदा और सटीक रचना!
यही तो विडंबना है अभिलाषा दी कि मन की बात करते तो सब है लेकिन मन की सुनता कोई नही। बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सखी आल्हा में ओज रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंहाल बुरा देखो जनता का,
बढ़ती कीमत है बेहाल।
नेता रंग बदलते ऐसे,
जैसे गिरगिट चलता चाल।।..वाह आनंद आ गया,बचपन में मेरे गांव में वीर रस से ओतप्रोत आल्हा सुना था ।