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अवसर देखें करते घात

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 आल्हा छंद सपने सुंदर दिखे सलोने, कब पूरे होते हर बार। दाल कभी जो दिखती थाली, तो रोटी की मारामार।। मुट्ठी में पैसे आते बस, झोली भर कर ले सरकार। जीवन की आपाधापी में, खुशियों की होती है हार।। खाली बर्तन खाली मन है, चिंता मुफ्त मिले हर बार। रोगों से घिरते लोगों की नैया कैसे लगती पार।। घर बिकता बिकते हैं सपने, लुट जाता सारा संसार। वादों पर बस जीवन चलता, जीना दोधारी तलवार।। दो पाटों में पिसे आदमी, छोड़े बैठा जीवन आस। भ्रष्ट बुनें मकड़ी सा जाला, उसकी कैसे बुझती प्यास।। सुख-सुविधा की बातें करते, कानों तक कब पहुँचे बात माना  जिनको अपना हमने अवसर देखे करते घात। अभिलाषा चौहान

सब धूल ही तो है

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घर में यहाँ-वहाँ बार-बार ज़मती धूल खींचती है अपनी ओर जिसके पीछे छिपा सच पल में खोल देता मेरी आँखें सब धूल ही तो है ये चमकती दुनिया  मात्र भ्रम है हाँ ये चमक जो स्वर्ण मृग है जिसने भ्रमित किया वैदेही को परिणाम देखा सबने धूल में मिला अहंकार धूल में खिला फूल न बन सका शोभा  राजमहल की असीमित अनंत दुख समेटे ये धूल पल में बनाती है इतिहास अनेक उनींदे स्वप्न  देखे दम तोड़ते जब हमारे भाग्य विधाता बन चंद मुट्ठी भर लोग आँखों में झोंक देते धूल हमने ही की भूल ईश्वर के उपहार बाग-बगीचे वन सबको मिलाया धूल में धूल ही धूल जो सनातन शाश्वत सत्य अंतरिक्ष भी असहाय सा इस धूल के आगे खाँसते खखारते रुग्ण शरीर चंद साँसों के लिए लड़ते इस धूल से दिन-दिन पाँव पसारती ये धूल लील जाएगी पृथ्वी को जिसको हमने दिया है बसेरा। हम ढूँढते रहेंगे  ग्रहों पर जीवन....?? अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

मानवता है अडिग खड़ी

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मौत नाचती सिर के ऊपर गिद्धों की है आँख गड़ी साँसों पर सिक्कों के पहरे आई कैसी कठिन घड़ी। मानव वेश धरे अब दानव कैसे इनसे पार पड़े ठगी लूट गोरखधंधों के कितने अब बाजार खड़े फिर भी लड़ता जीवन रण है मानवता है अडिग खड़ी। सदियों से संघर्ष चला है जीती है बस सच्चाई काल भले विपरीत चले पर घड़ियाँ सुख की भी आई चक्र समय का चलता रहता जुड़ती जाती कड़ी-कड़ी। राह कठिन कंटक हैं पग में मौसम से सुर बदले हैं बढ़ते जाते अपनी धुन में दुनिया कहती पगले हैं दीप प्राण का जलता रहता तूफानों की लगे झड़ी। अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

सवैया छंद प्रवाह

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सवैया छंद सीखते हुए कुछ पदों का सृजन  ।                सुमुखि सवैया 121 121 121 12,1 121 121 121 12 1-सिय वियोग चले रघुवीर तुणीर लिए, मन में सिय का बस़ ध्यान रहे। अनेक विचार उठे मन में,हर आहट वे पहचान रहे। प्रयास करें पर कौन सुने,वन निर्जन से सुनसान रहे। दिखे सब सून प्रसून दुखी,मन पीर वियोग निशान रहे। ========================= 2-राम वन गमन चले रघुवीर सुवीर बडे,मुख चंद्र समान लगे जिनका। सहोदर संग प्रवीण दिखे,बस रूप अनूप लगे उनका। सजे पुर बाग प्रदीप जले,मन मोहित मोद लगे छनका। कहें सब आज तुणीर धरे, ऋषि वेश सुवेश लगे इनका। =========================               गंगोदक सवैया गंगोदक सवैया को लक्षी सवैया भी कहा जाता है। गंगोदक या लक्षी सवैया आठ रगणों से छन्द बनता है। केशव, दास, द्विजदत्त द्विजेन्द्र ने इसका प्रयोग किया है। दास ने इसका नाम 'लक्षी' दिया है, 'केशव' ने 'मत्तमातंगलीलाकर'। 212 212 212 212, 212 212 212 212 1-गोपी विरह देखती राह हैं गोपियाँ राधिका,श्याम भूले नहीं याद आते रहे। आज सूनी पड़ी गाँव की ये गली,पीर देखो बढ़ी बात कैसे कहे। प्रीत झूठी पड़ी मीत ऐसा मिला