मानवता है अडिग खड़ी





मौत नाचती सिर के ऊपर
गिद्धों की है आँख गड़ी
साँसों पर सिक्कों के पहरे
आई कैसी कठिन घड़ी।

मानव वेश धरे अब दानव
कैसे इनसे पार पड़े
ठगी लूट गोरखधंधों के
कितने अब बाजार खड़े
फिर भी लड़ता जीवन रण है
मानवता है अडिग खड़ी।

सदियों से संघर्ष चला है
जीती है बस सच्चाई
काल भले विपरीत चले पर
घड़ियाँ सुख की भी आई
चक्र समय का चलता रहता
जुड़ती जाती कड़ी-कड़ी।

राह कठिन कंटक हैं पग में
मौसम से सुर बदले हैं
बढ़ते जाते अपनी धुन में
दुनिया कहती पगले हैं
दीप प्राण का जलता रहता
तूफानों की लगे झड़ी।

अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'






टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१९-११-२०२१) को
    'प्रेम-प्रवण '(चर्चा अंक-४२५३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर !
    वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो ---

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर सृजन, अभिलाषा दी।

    जवाब देंहटाएं

  4. राह कठिन कंटक हैं पग में
    मौसम से सुर बदले हैं
    बढ़ते जाते अपनी धुन में
    दुनिया कहती पगले हैं
    दीप प्राण का जलता रहता
    तूफानों की लगे झड़ी।...निराशा में आशा का संचार करती अनुपम उत्कृष्ट रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  5. राह कठिन कंटक हैं पग में, मौसम से सुर बदले हैं
    बढ़ते जाते अपनी धुन में, दुनिया कहती पगले हैं
    दीप प्राण का जलता रहता, तूफानों की लगी झड़ी।

    असाधारण काव्य-सृजन, कोई संदेह नहीं इसमें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
      आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए वो दीपक है जो सदैव मेरा मार्ग प्रशस्त करता है।सादर वंदन

      हटाएं
  6. बहुत ही सुन्दर सार्थक रचना

    जवाब देंहटाएं

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