मानवता है अडिग खड़ी
गिद्धों की है आँख गड़ी
साँसों पर सिक्कों के पहरे
आई कैसी कठिन घड़ी।
मानव वेश धरे अब दानव
कैसे इनसे पार पड़े
ठगी लूट गोरखधंधों के
कितने अब बाजार खड़े
फिर भी लड़ता जीवन रण है
मानवता है अडिग खड़ी।
सदियों से संघर्ष चला है
जीती है बस सच्चाई
काल भले विपरीत चले पर
घड़ियाँ सुख की भी आई
चक्र समय का चलता रहता
जुड़ती जाती कड़ी-कड़ी।
राह कठिन कंटक हैं पग में
मौसम से सुर बदले हैं
बढ़ते जाते अपनी धुन में
दुनिया कहती पगले हैं
दीप प्राण का जलता रहता
तूफानों की लगे झड़ी।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१९-११-२०२१) को
'प्रेम-प्रवण '(चर्चा अंक-४२५३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सहृदय आभार सखी 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंवीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो ---
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुंदर सृजन, अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार प्रिय ज्योति,सादर
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जवाब देंहटाएंराह कठिन कंटक हैं पग में
मौसम से सुर बदले हैं
बढ़ते जाते अपनी धुन में
दुनिया कहती पगले हैं
दीप प्राण का जलता रहता
तूफानों की लगे झड़ी।...निराशा में आशा का संचार करती अनुपम उत्कृष्ट रचना ।
सहृदय आभार प्रिय जिज्ञासा जी,सादर
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंराह कठिन कंटक हैं पग में, मौसम से सुर बदले हैं
जवाब देंहटाएंबढ़ते जाते अपनी धुन में, दुनिया कहती पगले हैं
दीप प्राण का जलता रहता, तूफानों की लगी झड़ी।
असाधारण काव्य-सृजन, कोई संदेह नहीं इसमें।
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए वो दीपक है जो सदैव मेरा मार्ग प्रशस्त करता है।सादर वंदन
उम्मदा सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया दी 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक रचना
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