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फकत् आंसू नहीं हूं मैं!!

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किसी की याद हूं मैं, तड़प हूं मैं किसी की। किसी की फरियाद हूं मैं, चमकूं बन आंखों का मोती, हृदय की पीड़ा मुझमें सोती। फकत् आंसू न मुझे समझो, मानवता मुझमें समायी  होती। भावों का हूं मैं बहता निर्झर। पीड़ा का हूं मैं उफनता समंदर, कभी खुशी बनकर हूं बहता। कभी छलकता तोड़ तटबंध, हूं मैं अश्रु ,आंसू और अश्क। कभी बनता विरह का अक्श, कभी खुशियों में बनूं शबनम। कभी ग़म में करता आंखें नम, कभी मिलन का बनूं साक्षी, अवसरों का हूं मैं आकांक्षी। सजूं आंखों में सबकी मैं, बना नयनों का गहना मैं। बड़े-बड़े काम कराता हूं, इंसान की परख कराता हूं। कभी पिघला देता हूं पत्थर, कभी तूफान भी लाता हूं। होता हूं मैं बड़ा मासूम, ममता की मचाता हूं धूम बच्चों की आंखों से छलकूं तो, मां की दुनिया ही जाती घूम। न हूं मैं किसी की मजबूरी, न हूं मैं किसी की कमजोरी। न बहाओ मुझे चोरी-चोरी, न बनाओ मुझे अपनी लाचारी। मैं इंसान की ताकत हूं, करता दिलों पर हुकुमत हूं। बनूं करुणा का बादल मैं, खुदा की अनमोल नियामत हूं। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अश्कों को छुपाके

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अपनी ही लबों पर मुस्कानो के पैबंद लगाके, जी रहा हूं यार,अपने गमों को छिपाके। दिल चाक-चाक है,अपनों के रहमो-करम से, फिर भी मुस्कुराता हूं,अपने अश्कों को छुपाके। जख्मों से तार-तार है दामन ये मेरा, जख्मों को रखता हूं परदों में छिपाके। उधड़ती गई ये जिंदगी,मिली जो ठोकरें, पहन तो इसी को रहा हूं अभी रफू कराके। ----------------------------------------------- छिपाने की कोशिशें नाकाम हो रहीं, फिर भी ना हारा हूं , हालातों से घबराके।               अभिलाषा चौहान स्वरचित (नोट-रेखांकित पंक्ति मुझे किसी ने दी थी कि इस पर रचना बनाएं,तो यह रचना बनी,अगर इसके लिए किसी को आपत्ति हो तो क्षमाप्रार्थी हूं।)

वसंत हो मेरे जीवन में

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वसंत  हो तुम मेरे जीवन में, जीवन के हर पलछिन में। कितने मौसम आएं-जाएं, कितने दुख के बादल छाएं। चाहे बेमौसम हों बरसातें, चाहें घिर के आएं काली रातें। परिवर्तन फिर भी आएगा, पतझड़ बाकी न रह पाएगा। तुम वसंत हो मेरे जीवन में, जीवन के हर पलछिन में। पहली सूर्य किरण मेरे मन की, शीतलता मेरे जीवन की। मदमाता अहसास तुम्हारा, मखमली है स्पर्श तुम्हारा। तुम हो साथ ,वसंत बनके, मिट जाएंगे संकट जीवन के। सुख के सुमन जरूर खिलेंगे, सपनों के पल्लव विकसेंगे। प्यार तुम्हारा शबनम जैसा दुख की दाह मिटा ही देगा। बहने लगेगी प्रेमरस धारा, कलुष मिटेगा मन का सारा। मन पंछी फिर से चहकेगा खुशियों का गुलशन महकेगा।

भारत का भविष्य

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बुरा न मानो होली है!! (मात्र व्यंग्य है,अन्यथा न लेवें) †***************************** प्रगति मैदान में शायद कोई मेला लगा था। एक ओर, एक नेता भारत की प्रगति पर, भाषण दे रहा था। एक ओर,एक बच्चा हाथ में कटोरा लिए खड़ा था। नेता ने कहा, देश के विकास की , योजनाएं बनाई हैं। विकास कार्य जोरों पर है। आर्थिक विकास के प्रयत्न किए जा रहे हैं, अभी कटोरों की संख्या कम है, और कटोरे बनाए जा रहे हैं, लोगों  !!! एक दिन ऐसा आएगा, जब सभी भेदभाव मिट जाएंगे, आज कुछ के हाथ में कटोरा है, कल सबके हाथ में कटोरा थमाएंगे। इस तरह, देश का भविष्य बनाएंगे। देश को उन्नति के , चरम शिखर पर पहुंचाएंगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

हर घर वृंदावन बन जाए

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होली का ये पावन त्योहार, लेकर आए खुशियां अपार। आओ मिल मनभेद मिटाएं, छा जाए चहुं ओर बहार। भूल जाएं सब बीती बातें, भूल जाएं घातें-प्रतिघातें। प्रेम-रंग में रंग कर हम सब, पा लें जीवन की सौगातें। क्यों जीवन में कटुता घोलें, क्यों नफरत के रंग ले हम डोलें। क्यों न लगाएं खुशियों के मेले, धुल जाए जिसमें मन का मलाल। वृंदावन हर घर बन जाए, कान्हा प्रेम का रंग बरसाए। तन-मन भींगे प्रेम के रंग में। राधामय ये संसार हो जाए। अभिलाषा चौहान स्वरचित ,मौलिक

आया होली का पर्व

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आया होली का पर्व लेके उमंग, चहुं ओर बिखरे खुशियों के रंग। मन सबका झूमें बनके मलंग, बाज रहे ढोल-ताशे,मृदंग। आओ मिल सब रंगें एक ही रंग, जीवन में घुल जाए प्रेम का रंग। कान्हा होली खेले जैसे राधा के संग,      प्रकृति भी झूमें चढ़ा राधे का रंग। गोकुल की गलियों में मची है धूम, आसमां भी धरती को रहा है चूम। भीनी-भीनी बहे फागुनी बयार, मस्त-मस्त मौसम मन रहा है झूम। होली का हुड़दंग बाजे मृदंग, राधिका नाचे कान्हा के संग। अंग-अंग रंग है भीगे प्रत्यंग, फागुन में फाग की ऊंची ऊचंग। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

आह ! ये अग्नि विरह की...!!!

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आह!ये अग्नि विरह की, जल रहा धरती-गगन। प्यास ये बुझती नहीं, नीर भरे मेरे दो नयन। ओ !मेरे बैरी सजनवा, काहे तुम बसे हो विदेश। ये पवन भी भई है बैरन, लाए न तेरा संदेश। बर्षा ऋतु की ये फुहार, तन पर लगे अंगार सी। मोर-पपीहा की मीठी वाणी, चुभे खंजर के वार सी। काहे न आते सजनवा परदेशी, मन बंजर तन अति उदासी। न कोई ऋतु मोहे भावे, न कोई सुहाए श्रृंगार सखी। बाहर-भीतर डोलती, कछु न किसी से बोलती। घड़ियां लगे सदियों समान, पलकों से रास्ते तोलती। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

विरह पर दोहे(प्रयास मात्र)

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 विरह पर चंद दोहे(प्रयास मात्र) """""""""""""""""""""""""""""""""""""" विरह वेदना बढ़ रही,नयना बरसें नीर।           तन में बंदी आत्मा,कैसे पालें धीर।। """""""""""""""""""""""""""""""""""""" विरह-अग्नि में जल रहा,प्रभु का दिया शरीर। बंदी बनी है आत्मा, कैसे पहुंचें तीर।। """"""""""""""""""""""""""""""""""""""" दुनिया कारागार है,बंदी तन-मन होय। माया में उलझा रहे,सत्य न समझे कोय। """"""

ग़रीब कौन ??

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गरीबी है खटमल , खून पीती गरीब का। घुन की तरह करती, खोखला तन-मन। दफन होती उम्मीदों, और इच्छाओं के बीच, सर उठा कर रूआब से रहती खड़ी गरीबी। दिखाती अंगूठा..., सारी व्यवस्थाओं को। सुरसा के मुख सी बढ़ती, गरीबी लीलती जिंदगियां। या अपने तीक्ष्ण... नुकीले पंजों में जकड़ती, जाती गरीब को!! गरीब और होता गरीब ? मरता बेमौत, जीतता जंग...? हर रोज अपने जीवन की। अपने संस्कारों के साथ, बचाता परंपराएं!! है जो अमीरी के नाम पर, उसके पास। और मारता तमाचा उन, सभ्य इंसानों के मुंह पर। जो कहलाते अमीर, होते दिल से गरीब...! ढोते इंसानियत की लाश!! पहने तमगा.. समाज के उत्थान का! करते बड़ी-बड़ी बातें, बनाते हवाई किले। बेखबर उन गरीबों से, जिनके घर में नहीं चार दाने। खाली लुढ़कते बर्तन खाली शून्य आंखें करती इंतजार कि कभी दिन सुधरेंगे। अभिलाषा चौहान स्वरचित, मौलिक