आह ! ये अग्नि विरह की...!!!
आह!ये अग्नि विरह की,
जल रहा धरती-गगन।
प्यास ये बुझती नहीं,
नीर भरे मेरे दो नयन।
ओ !मेरे बैरी सजनवा,
काहे तुम बसे हो विदेश।
ये पवन भी भई है बैरन,
लाए न तेरा संदेश।
बर्षा ऋतु की ये फुहार,
तन पर लगे अंगार सी।
मोर-पपीहा की मीठी वाणी,
चुभे खंजर के वार सी।
काहे न आते सजनवा परदेशी,
मन बंजर तन अति उदासी।
न कोई ऋतु मोहे भावे,
न कोई सुहाए श्रृंगार सखी।
बाहर-भीतर डोलती,
कछु न किसी से बोलती।
घड़ियां लगे सदियों समान,
पलकों से रास्ते तोलती।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
जल रहा धरती-गगन।
प्यास ये बुझती नहीं,
नीर भरे मेरे दो नयन।
ओ !मेरे बैरी सजनवा,
काहे तुम बसे हो विदेश।
ये पवन भी भई है बैरन,
लाए न तेरा संदेश।
बर्षा ऋतु की ये फुहार,
तन पर लगे अंगार सी।
मोर-पपीहा की मीठी वाणी,
चुभे खंजर के वार सी।
काहे न आते सजनवा परदेशी,
मन बंजर तन अति उदासी।
न कोई ऋतु मोहे भावे,
न कोई सुहाए श्रृंगार सखी।
बाहर-भीतर डोलती,
कछु न किसी से बोलती।
घड़ियां लगे सदियों समान,
पलकों से रास्ते तोलती।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
सुंदर विरह रचनारचना ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार कुसुम दी,सादर
हटाएंबहुत ही सुंदर ....
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी
हटाएंबहुत सुन्दर सखी
जवाब देंहटाएंसादर नमन
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏
हटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/03/2019 की बुलेटिन, " गैरजिम्मेदार लोग और होली - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय शिवम जी
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१८ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सहृदय आभार सखी श्वेता
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआह!ये अग्नि विरह की,
जवाब देंहटाएंजल रहा धरती-गगन।
बेहतरीन सृजन आदरणीया
सहृदय आभार रवीन्द्र जी 🙏
हटाएंविरह के अनमोल लम्हों को शब्दों के सहारे कहने का सुन्दर प्रयास है ...
जवाब देंहटाएंबखूबी इस रंग को उतारा है ...
सहृदय आभार आदरणीय 🙏
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