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लेखनी के मार्ग छूटे

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  हो रहा मन आज विचलित देख सुख के स्वप्न झूठे वेदना मन में हुलसती भावना के तार टूटे। उलझनों के जाल कैसे बेड़ियों से बन गए हैं स्वार्थ में सब नेह धागे आज कैसे जल गए हैं नित विषय कितने भटकते लेखनी के मार्ग छूटे। घेरता मन को अँधेरा आस-दीपक बुझ रहा है लेखनी अब हारती सी धैर्य उसका झर रहा है मौत मानवता की हुई और सबके भाग फूटे। खो गई सारी दिशाएँ धुंध कैसी छा रही है राह सारी छूटती अब पीर हिय को खा रही है। नींद नयनों की उड़ी है चैन सबका कौन लूटे। अभिलाषा चौहान 

सत्य का होता दमन

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नाग की फुफकार ऐसी         जल उठा मेरा चमन       घुल गया विष इस हवा में         कौन करता फिर शमन।। देवता भी सिर धुने अब धर्म ठिठका सा खड़ा ये सृजन किसका किया है व्यर्थ बातों पर अड़ा दंश नित वह दे रहा है सत्य का होता दमन घुल गया.................।।         ज्ञान के भी नेत्र फूटे         पाप सिर चढ़ बोलता        नीतियां सब ताक ऊपर         कौन किसको तोलता       स्वार्थ जिससे पूर्ण हो बस          ये करें उसको नमन          घुल गया..............।। कोंपले मुरझा रहीं हैं शाप किसका है लगा चाल उल्टी चल रहें हैं  दे रहे सबको दगा व्याल के बंधन फँसी यह मानवी करती रुदन घुल गया.................।। वर्तमान में देश में होने वाली कुछ घटनाओं को देखकर मन क्षुब्ध है। हमारा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र आज ऐसी आग में झुलस रहा है जिसका कोई औचित्य मेरी समझ में नहीं आता।कुछ कट्टरपंथियों के कारण सांप्रदायिक सद्भाव संकट में पड़ गया है।धर्म और जाति मानव से ऊपर तो नहीं हो सकते। अभिव्यक्ति की आजादी पाकर वाणी की मर्यादा को ताक पर रख देना अशोभनीय है।ऐसा लगता है कि हमारे देश में और कोई समस्या ही बाकी नहीं है।कर्ता-धर्ता आँख पर प

मौन मन में धर लिया है।

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अधखिली कोमल कली का रूप सारा हर लिया है पैर पायल बाँध बेड़ी बोझ सिर पर मढ़ दिया है। ढूँढती अस्तित्व अपना बीनती सपनों के पंख मूक बधिरों से जगत में फूँकती वह कितने शंख बंधनों के जाल उलझी मौन मन में धर लिया है। खेलती गुड़िया सलोनी है बड़ी मासूम भोली भाग्य लिखते हैं विधाता और जलते स्वप्न होली बाँधते दायित्व उसको घूँट कड़वा ही पिया है। शूल पथ में हो बिछे या धूप तन को छेदती है आँख में सागर समेटे दर्द से हिय भेदती है शिशु सुता की गोद में दे भार माँ का धर दिया है।। अभिलाषा चौहान 

श्वास अंतिम दौर में

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भूलता अस्तित्व अपना खो रहा इस ठौर में  राह से भटका हुआ हूँ बन गया कुछ और मैं।। कल्पनाएँ ले उड़ी जब सब लगा सुंदर बड़ा पँख ने फिर साथ छोड़ा भूमि पर आकर पड़ा आँख मूँदे जी रहा था करता कहाँ गौर मैं।। हो गया पतझड़ शुरू अब ठूँठ केवल बच रहा लू जलाती गात को जब ताप कब जाए सहा खो गई आवाज मन की गूँजते इस शोर में।। साँझ ढलती कह रही है चक्र पूरा हो चला काल पासा फेंकता है सोच अपना अब भला आ कभी फिर मिल जरा तू श्वास अंतिम दौर में।। अभिलाषा चौहान 

मदिरा सवैया(मोहन माधव नाम जपें)

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मदिरा सवैया दीन दयाल दया निधि हे,भव सागर का मद मारक है। मोहन माधव नाम जपें,सुखधाम वही भव तारक है। प्राण बसे जिनके उनमें,सब कष्टन के वह हारक है। जीवन मंदिर सा बनता,हिय केशव का जब धारक है। ________________________ चकोर सवैया माधव मोहन की मुरली सुन,भूल गई सखियाँ सब काज। केशव की छवि मोहक सी मन, डोल रही तन छूटत लाज। भूल गई घर द्वार सभी बस,मोहन का मन मंदिर राज। प्रीत करी जबसे उनसे बस,पीर बढ़ी बिखरे सब साज। ________________________ माधव मोहन मोह रहे मन,देख सखी सिर शोभित मोर। राज करे मुरली अधरों पर,चंचल हास्य लिए चितचोर। पीत पटा तन पे अति शोभित, भानु दिखे नभ पे जस भोर। नैनन से उनकी छवि देखत,चंद्र लगे हम देख चकोर। ________________________ अभिलाषा चौहान 

टूटे पंख पखेरू रोया

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फूलों के सपने नित देखे सदा रहे जो खोया-खोया कर्महीनता सिर चढ़ बोले शूलों को निज पथ में बोया।। बातों के नित महल बनाए सदा सत्य को मारे ठोकर मन के द्वार बंद कर बैठा पछताता फिर अवसर खोकर तरुणाई आलस में बीती सदा रहा वह सोया-सोया कर्महीनता सिर चढ़ बोले शूलों को निज पथ में बोया।। उड़ता फिरता नीलगगन में थोथे अपने गाल बजाता भार बना सबके जीवन पर सफल कहाँ कब वह हो पाता नीलांबर से धूल चाटता टूटे पंख पखेरु रोया कर्महीनता सिर चढ़ बोली शूलों को निज पथ में बोया।। जैसी करनी वैसी भरनी रीति सदा से यही चली है भूलों पर जो धूल डाल दे छाती पर बस मूँग दली है श्रम से मुख को रहा मोड़कर भाग्य सदा उसने है धोया कर्महीनता सिर चढ़ बोले शूलों को निज पथ में बोया।। अभिलाषा चौहान           

बँट रही है आज देहरी

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रो रहे आँगन घरों के नींव हिलती देख गहरी मौन करता नित बसेरा झुर्रियों में पीर प्रहरी। आज चलती हैं दीवारें ढूँढती अपना ठिकाना द्वार मन के बंद होते स्वार्थ बैठा कर बहाना रेख घर-घर में खिंची है बँट रही है आज देहरी। बोझ लगती वर्जना अब है छिड़ा संग्राम कैसा जीभ ने तलवार पकड़ी आँख में बसता है पैसा श्वेत केशों से छिने छत घोलती विष चाल शहरी। आज उजड़े काननों में चीखते सब ठूँठ देखे पुष्प मुरझाए हुए थे शूल गढ़ते भाग्य लेखे आँधियों के प्रश्न पर फिर यह धरा क्यों मौन ठहरी।। अभिलाषा चौहान 

हो बस ये संकल्प हमारा

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आजादी के महापर्व पर हो बस ये संकल्प हमारा गगन चूमता रहे तिरंगा उन्नत भारतवर्ष हमारा। बलिदानों की बलि वेदी पर जो आजादी हमने पाई अपने-अपने सुख में डूबे उसकी गरिमा आज भुलाई कर्म निष्ठ बन करें समर्पण  विश्व विजय करे देश प्यारा गगन चूमता....................।। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई आओ हम ये भेद भुला दें मातृभूमि हो सबको प्यारी कटुता के सब बीज गला दें  एक सूत्र में बँधे ये माला आशा साहस सत्य सहारा  गगन चूमता...................।। प्रेम अहिंसा करुणा का पथ सबसे उत्तम और निराला देशप्रेम हो सबसे ऊपर मित्र भाव मन हृदय विशाला धीर वीर बनकर उत्साही निज गौरव जग में विस्तारा  गगन चूमता.....................।। अभिलाषा चौहान 

कह दूँ जो हो बात सही

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उमड़ पड़ा भावों का सागर प्राणों में रस धार बही करूँ कल्पना कविता रच दूँ कह दूँ जो हो बात सही।। पग में बंधन बेड़ी बनकर रोक रहें हैं पथ मेरा नीलगगन तब मुझे पुकारे तोड़ चलो अब ये घेरा पूरी करो कल्पना अपनी मन की मन में रखो नहीं करूँ कल्पना कविता रच दूँ कह दूँ जो हो बात सही।। उड़ता फिरता मन का पंछी चुनता शब्दों का दाना बुद्धि नीड़ में करे बसेरा बुनती है ताना-बाना लिख-लिख पाती फाड़ी कितनी मंथन से निकला न मही करूँ कल्पना कविता रच दूँ कह दूँ जो हो बात सही।। शब्द-शब्द मोती से चमके अर्थ प्राण जब साथ रहे छंदों के बंधन में बंधकर कविता कैसे बात कहे सोच रही बैठी मैं कबसे सच्चा होगा स्वप्न यही करूँ कल्पना कविता रच दूँ कह दूँ जो हो बात सही।। अभिलाषा चौहान

सब कुछ लगता नया-नया

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वीणा के तारों में मुखरित सपनों का संसार नया जाग उठा आनंद अलौकिक  जीवन होता निरामया। अवनी अंबर मध्य तिरोहित हुए गरल के भाव सभी रस-गंगा निर्मल हो बहती पुलकित सारी सृष्टि तभी कण-कण सुर सप्तक बजती है  सब कुछ लगता नया-नया। समता ममता करुणा जागे भरे ज्ञान का रिक्त कुआँ माया-मद के टूटे बंधन पीर उड़े ज्यों उड़े धुआँ भाव-कमल मन सर में खिलते नीरसता का भान गया। स्वाति बूँद चातक ने पाई युगों-युगों की प्यास बुझी घोर यामिनी मध्य चमकती आशा की नव किरण सुझी मैं-पर के सब भाव मिटे अब मन मंदिर में बची दया।। अभिलाषा चौहान