बँट रही है आज देहरी


रो रहे आँगन घरों के

नींव हिलती देख गहरी

मौन करता नित बसेरा

झुर्रियों में पीर प्रहरी।


आज चलती हैं दीवारें

ढूँढती अपना ठिकाना

द्वार मन के बंद होते

स्वार्थ बैठा कर बहाना

रेख घर-घर में खिंची है

बँट रही है आज देहरी।


बोझ लगती वर्जना अब

है छिड़ा संग्राम कैसा

जीभ ने तलवार पकड़ी

आँख में बसता है पैसा

श्वेत केशों से छिने छत

घोलती विष चाल शहरी।


आज उजड़े काननों में

चीखते सब ठूँठ देखे

पुष्प मुरझाए हुए थे

शूल गढ़ते भाग्य लेखे

आँधियों के प्रश्न पर फिर

यह धरा क्यों मौन ठहरी।।


अभिलाषा चौहान 






टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 अगस्त 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलबुधवार (17-8-22} को "मेरा वतन" (चर्चा अंक-4524) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  3. "जीभ ने तलवार पकड़ी, आंख में
    बसता है पैसा" - बहुत खूब। यथार्थ का चित्रण। बधाई आपको। सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. आज उजड़े काननों में

    चीखते सब ठूँठ देखे

    पुष्प मुरझाए हुए थे

    शूल गढ़ते भाग्य लेखे... वाह! गज़ब कहा सखी।
    सादर स्नेह

    जवाब देंहटाएं
  5. सार्थक भावों वाला सुंदर नवगीत सखी।

    जवाब देंहटाएं

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