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करार (वर्ण पिरामिड)

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है  मन व्याकुल टूटा-दिल छिना सुकून जिंदगी बेजार कैसे आए करार। ना                          ढूंढों करार बाह्य‌-जग कोई न मीत मजाक बनता घाव और बढ़ता। न आए करार दिल-हार मन-चंचल प्रेम का चातक ढूंढ़ता स्वाति बूंद। वो वीर शहीद खोया लाल स्तब्ध मां-बाप पत्नी बनी बुत कैसे आए करार? वे वीर शहीद किया घात आतंक ओट हतप्रभ देश नहीं आता करार। न आए करार वीर-लाल आतंक भेंट पीठ पर वार अब करो संहार। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक चित्र गूगल से साभार

तांका (शब्द, मोह-माया,पत्र)

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(शब्द) ****************************** शब्द-सागर भावों की हो गागर उत्तम शब्द सुंदर हो सृजन रसमय हो काव्य ****************************** शब्द हैं ब्रह्म करते हैं विस्फोट निसृत ध्वनि शब्द-अर्थ शरीर रसमय हो काव्य। ****************************** (विभीषिका) ****************************** निष्ठुर अग्नि बन गई थी काल चिराग बुझे अंधकार प्रबल तड़पते मां-बाप। ****************************** (मोह-माया) ****************************** भौतिक सुख सांसारिक बंधन उलझा मन असंतोष से ग्रस्त बढ़ाते सदा खर्च। ****************************** जीवन धन व्यर्थ हो रहा खर्च माया में फंसा हरि को कहां भजा भुगत रहा सजा। ****************************** माया में फंसा मुक्ति मृगतृष्णा मिट्टी का तन मोहपाश जकड़ा उलझा न सुलझा। ****************************** (पत्र) ****************************** आया न पत्र विरह से व्यथित तकती राह हृदय चुभे शूल प्रिय गए क्या भूल ? ****************************** प्रेम सुगंध अमिट जो स्मृतियां समेटे पत्र साक्षी बीते पलों के संवाद दो दिलों क

मैं बनूं सुर

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मेरे सुर में तुम्हारा सुर मिले तो बात बने, मैं बनूं सुर और ताल तुम बनो तो बात बने। मैं बनूं गीत ,बोल तुम बनो तो बात बने, मैं बनूं कविता ,रस तुम बनो तो बात बने। मैं बनूं शब्द तुम अर्थ बनो तो बात बने। मैं बनूं छंद तुम तुक बनो तो बात बने। मैं बनूं भाव तुम बनो प्राण तो बात बने। मैं बांसुरी और तुम तान बनो तो बात बने। मेरे जीवन के तुम बनो अलंकार तो बात बने। मैं-तुम बन जाए हम तो कोई बात बने। सुन लो अनकही बातें तुम तो कोई बात बने, मैं बहती नदियां तुम सागर बनो तो बात बने। मैं बहती पवन तुम बनो सौरभ तो बात बने, मैं खिलता पुष्प तुम भंवरा बनो तो बात बने। मैं चांदनी तुम मेरे चंद्रमा बनो तो बात बने, मैं उषा और तुम दिनकर बनो तो बात बने। बिखरा दो इंद्रधनुषी रंग तो कोई बात बने, जीवन बने सप्त सुरों का संगम तो बात बने। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

क्षणिकाएं

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         कहां सुनाई देती    किसी निरीह की पुकार    पत्थरों के शहर में    भगवान भी पत्थर के    इंसान भी पत्थर के    टकराकर लौटती पुकार    घुट कर रह जाती!! *****************************    पुकार अब    हृदय तक नहीं जाती    नहीं जलती कोई आग    नहीं उठती कोई लहर    पुकार में नहीं दम या    हृदय में भाव हुए कम    या हो गए हम निष्प्राण    सुनकर पुकार    कभी किया किसी परित्राण!! ******************************    उठी लहर    बस उठती गई    सर्वत्र चीत्कार    पसरा मौन    मृत्यु का नंगा नाच। *****************************    था अशांत मन    उठी लहर    आया तूफान    एक पल में    काठ बनी जिंदगी    कांच से बिखरे    सारे स्वप्न। *****************************   जिह्वा ने रचे प्रपंच   टूटते रिश्ते   बिखरते घर   होते युद्ध   बेबस इंसान    सोच समझकर बोल । ******************************   जिव्हा   अमर्यादित   उच्छृंखल   वाचाल   करती मनमानी   बदली एक पल में   सारी कहानी। ****************************** अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

दोहावली

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कर्म ***** सूरज बन चमको सदा, करो बड़ों का मान, अच्छे कर्म करो सदा, जग में हो यशगान।। ****************************** पानी **** पानी सदा सहेजिए,ये तो है अनमोल। जीवन के लिए अमृत है,देखो आंखें खोल। ****************************** वर्षा जल संचय करो, बूंद-बूंद अनमोल। जल के बिन जीवन नहीं,देखो आंखें खोल।। ****************************** जल के बिन जीवन नहीं,समझो इसका मोल। जल संकट है सामने,देखो आंखें खोल।। ****************************** अस्तित्व ******** मानव इस संसार में,तू है बूंद समान। कब माटी मिल जाएगा,काहे का अभिमान।। ****************************** सावन ***** सावन आया है सखी,मन में उठे उमंग। रिमझिम बारिश हो रही,सखियां झूमें संग।। ****************************** झूला झूलें सब सखी ,गाए सावन गीत रिमझिम बारिश हो रही,छलक उठी है प्रीत।। ****************************** सावन आया ऐ सखी,मन में उठती पीर । पिय मेरे अति दूर हैं ,दिल हो रहा अधीर।। ****************************** भाषा **** भावों के उद्गार में,भाषा है वरदान। मन की गांठें खोल दे,रिश्तों की है जान।। *******

वर्ण पिरामिड

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 है धर्म परार्थ परमार्थ परोपकार संसार उत्थान मानवता कल्याण। ”"""""""""""""”""""""""” है उर आकुल देख दशा पीड़ित जन शुष्क संवेदना व्यथित मानवता। ”"""”"""""""""""""""""""”  है गीत जिंदगी प्रेम-पगी पुष्प-गंध-सी बहती नदी सी हंसती मुस्कुराती। ”"""""""""""""'"""""""""” है मीत जिंदगी जो सुंदर वर्षा-बूंदों सी निर्झर -धारा सी जलधि-तरंगों सी। ””"""""""""""'""""""""""""” है जंग जिंदगी दुखदायी स्वार्थों से बंधी विवादों में फंसी उलझनों से घिरी। ”""""'"""""""&quo

करते हैं सजदा

तेरे दर पर लेके खाली दामन मायूसियों के मारे वक्त के सितम सह-सह कर हारे करते हैं सजदा ऐ मेरे मौला!! न डूबे कश्ती बीच भंवर में न मिटे जिंदगी नाउम्मीदी के जहर में खाली उनकी झोली भर देना मौला! करते हैं सजदा और ये दुआ भी उनके घर भी आए ईद मने रोज दीवाली मिट जाए ग़म के काले अंधेरे, खुशियों से रोशन हों उनके सवेरे तेरी मर्जी के आगे चली किसकी कहां हैं लबों से बस निकले यही दुआ है तेरी रहमत का नूर बरसे सभी पर ग़म का साया न रहे कहीं पर ऐ मेरे मौला! करते हैं सजदा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जीवन में संचित किया है गरल

जीवन-पथ कब हुआ है सरल, हर मोड़ पर पीना पड़ता है गरल। छल-छंदों से भरी इस दुनिया में, धोखा मिलता रहता हर पल। सुख के दिन कब रहते हैं अटल, दुख में भला कौन रहा अविचल। घिर कर आते हैं संकट के बादल, उलझे जीवन जिसमें पल-पल। कभी मन घबराए न पाता कल, कभी हालातों से हो जाता विकल। आंखों से गिरे आंसू कितने, कौन साथ रहा है कब हरपल। ये जीवन चक्र न रूका एक पल, चाहे जीवन में हो कितनी हलचल। न समय पर किसी का जोर चला, न बांध सका कोई मुट्ठी में पल। कब हाथ से सब जाएगा निकल, किसके लिए करे इतने तूने छल। अमृत तुझको फिर भी न मिला, जीवन में बस संचित किया है गरल। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

ओढ़ कर खामोशी

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मैं हूं ज़िंदादिल!! समझती हूं , जिंदगी के मायने, रिश्तों की अहमियत, समय की महत्ता, कर्त्तव्य-परायणता, रहता है प्रयास यही, न दिल दुखे किसी का, न हो किसी की सेवा में कमी, बन जाती हूं चट्टान!! विपत्ति के क्षणों में, ओढ़ कर खामोशी! करती हूं सामना बुरे वक्त का, पर एक कड़वा सच, जो आता है सामने, अपनों का गैर जिम्मेदाराना रवैया, तब बिखरने लगती हूं मैं, अंतस में उमड़ता है ज्वार!! जिसे खुद ही पी जाती हूं, मैं हूं चट्टान!! जिसके अंतस में है , खारे पानी का सोता!! निर्विकार भाव से सहती हूं मैं, वक्त के बेरहम हथौड़े, और मजबूती से, पकड़ लेती हूं जिंदगी का दामन, पी जाती हूं खामोशी से, अंतस की पीड़ा!! नहीं हारती हूं मैं, क्योंकि हूं मैं ज़िंदादिल !! अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अजीब सी ये खामोशी

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एक अजीब सी खामोशी पैर जमाती है समय के साथ दर्द भी लबों तक आते शर्माता है कुछ बिखरता है कुछ टूट जाता है किरचा-किरचा हुई कांच सी जिंदगी चुभती बहुत बेवजह ये खामोशी हंसने वाले तो तलाशते मौका कुछ तो पत्थर हाथ में लेकर बैठे मिलते कहां इंसान ढूंढे -ढूंढे अनेक सपनों की समाधि है ये दम तोड़ती इच्छाओं का है आईना समय के साथ बनाती है घर अपना भुला देती है जीवन कैसे जीना टूट जाते हैं पंख रूक जाती उड़ान बर्बादी लिखती है नई इक दास्तान ये खामोशी पंजों में दबोचे जीवन सोखती जाती है जीवन के रस तन्हाई और अकेलेपन बनते साथी पसर जाती है भीतर-बाहर खामोशी। देती है आने वाले तूफानों का संदेशा, जिसका किसी को कहां होता अंदेशा। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

पिंजरे का पंछी

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मैं जीना चाहूं बचपन अपना, पर कैसे उसको फिर जी पाऊं! मैं उड़ना चाहूं ऊंचे आकाश, पर कैसे उड़ान मैं भर पाऊं! मैं चाहूं दिल से हंसना, पर जख्म न दिल के छिपा पाऊं। मैं चाहूं सबको खुश रखना, पर खुद को खुश न रख पाऊं। न जाने कैसी प्यास है जीवन में, कोशिश करके भी न बुझा पाऊं। इस चक्रव्यूह से जीवन में, मैं उलझी और उलझती ही गई। खुशियों को दर पर आते देखा, पर वो भी राह बदलती गई। बनकर इक पिंजरे का पंछी, मैं बंधन में नित बंधती गई। आंखों के सपने ,सपने ही रहे, औरों के पूरे करती रही। हर मोड़ पर सबका साथ दिया, अपने ग़म में बस अकेली रही। मेरे मन की बस मन में रही, पल-पल बस मैं घुटती रही। नित नई परीक्षा जीवन की, बस जीवन को ही पढ़ती रही। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

कैसा समय ये आया है??

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वह नन्हा सा गोवत्स उछलता-कूदता अमृत पीने को आतुर घूमता अपनी मां के चारों ओर पनीली आंखों से ताकती गोमाता अपने नन्हे से वत्स को जैसे मांग रहा हो आसमां के तारे अपनी जिव्हा से ममता बरसाती जैसे उसे हों समझाती ऐसे जिद नहीं करते पगले तू ही जरा सा धीर धर ले माना तुझे लगी भूख बहुत आत्मा मेरी रही है तड़प ये इंसान सब निचोड़ लेता है फिर भटकने के लिए छोड़ देता है कहता तो है ये गोमाता पर बड़ा स्वार्थी और निष्ठुर है हमें कहां देगा ये आश्रय खुद की जननी को त्याग देता है। न चारा ,न कहीं हरियाली अपने हिस्से की घास भी उसने खा डाली ये ढेर कचड़ा जो पड़ा है यहां ढूंढ के कुछ उसमें तुझे देती हूं आजा मन को झूठी तू तसल्ली दे ले बूंद भी बाकी नहीं जो तू पीले। रंभा-रंभा के गोवत्स हुआ व्याकुल था मां को भी नहीं पड़ता कल था कैसा वक्त ये आया है गोपालक देश में गो को ही दाने-दाने के लिए तरसाया है। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

जिंदगी एक पहेली

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"जिंदगी कैसी है पहेली हाए, कभी ये हंसाए कभी ये रूलाए।" सच पूछो तो ये जिंदगी एक  पहेली ही है।जब हमें लगता है कि सब अच्छा हो रहा है,सब ठीक है तभी ये  अपना रंग बदल देती है।हम पहेलियां सुलझाते हैं और यह हमें पहेलियों में उलझाती रहती है। 'जिंदगी इम्तिहान लेती है' यह गीत भी इसी फलसफे को सच सिद्ध करता है। मां की कोख में पलने वाला जीवन, उसके ममतामयी आंचल में बढ़ने वाला जीवन ,पिता की छत्रछाया में भविष्य की नीवं रखता बचपन, हंसता-खेलता आगे बढ़ता है। फिर शुरू होते हैं इम्तिहान।ये एक बार शुरू होते हैं तो खत्म ही नहीं होते,ऐसा लगता है जैसे-" जिंदगी हर कदम इक नई जंग है।" इस जिंदगी को कोई मस्तमौला बनकर जीता है और"हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया, मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया"की तर्ज पर जिंदगी जीता है तो कोई इसे बोझ समझ लेता है। "न कोई उमंग है न कोई तरंग है,मेरी जिंदगी तो बस कटी पतंग हैं।"किसी को ये सफर बड़ा सुहाना लगता है-"जिंदगी इक सफ़र है सुहाना, यहां कल क्या हो ,किसने जाना" सही भी है,भला कौन जा

ए जिंदगी

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ए ज़िंदगी बहुत दिया है तूने! मैं ही न सम्हाल पाई धरोहर तेरी! तू कसौटी पर कसती रही, हर पल मुझे रही परखती, मैं डरी-सहमी हिरनी-सी फंसी तेरे जाल में! दुख के समुद्र में रही डूबती! नहीं देख पाई, वो उजाले की किरण! जिसने भेदा था अमा की रात को! मैं नहीं समेट पाई उजाला, मोह की जंजीरों में बंधी, न भर पाई उड़ान, इस खुले आसमान में! न पा सकी वो सौरभ! जो अंतरतम में, कस्तूरी-सम थी सदा विद्यमान! न खोल पाई पट, न जला ज्ञान-दीप! बस तुझे बंधन में बांधने की, करती रही कोशिश । न बांध पाई तेरी निरंतरता, तू मुट्ठी से रेत-सम, धीरे-धीरे रही सरकती। मैं करती रही इंतजार, ए जिंदगी तेरा! न तुझे जी पाई, न तेरे साथ चल पाई, मैं मूढ़मति! न पा सकी वह लक्ष्य जो चुना था तूने मेरे लिए। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक