कैसा समय ये आया है??

वह नन्हा सा गोवत्स
उछलता-कूदता
अमृत पीने को आतुर
घूमता अपनी मां के चारों ओर
पनीली आंखों से ताकती गोमाता
अपने नन्हे से वत्स को
जैसे मांग रहा हो आसमां के तारे
अपनी जिव्हा से ममता बरसाती
जैसे उसे हों समझाती
ऐसे जिद नहीं करते पगले
तू ही जरा सा धीर धर ले
माना तुझे लगी भूख बहुत
आत्मा मेरी रही है तड़प
ये इंसान सब निचोड़ लेता है
फिर भटकने के लिए छोड़ देता है
कहता तो है ये गोमाता
पर बड़ा स्वार्थी और निष्ठुर है
हमें कहां देगा ये आश्रय
खुद की जननी को त्याग देता है।
न चारा ,न कहीं हरियाली
अपने हिस्से की घास भी
उसने खा डाली
ये ढेर कचड़ा जो पड़ा है यहां
ढूंढ के कुछ उसमें तुझे
देती हूं आजा
मन को झूठी तू तसल्ली दे ले
बूंद भी बाकी नहीं जो तू पीले।
रंभा-रंभा के गोवत्स
हुआ व्याकुल था
मां को भी नहीं पड़ता कल था
कैसा वक्त ये आया है
गोपालक देश में
गो को ही दाने-दाने के लिए तरसाया है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक





टिप्पणियाँ

  1. माँ का सम्मान नहीं तो किस का सम्मान करेगा इंसान ...
    सार्थक और सामयिक रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर मार्मिक रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीया।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही मार्मिक रचना सखी |हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ आप को
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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