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नेह बंध,बंध गए

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भावनाएं उड़ चली जोड़ने नेह के तार जा पहुंची सुदूर देश चीर कर अंधकार। न तुम मिले न हम मिले, नेह बंध ,बंध गए। अपरिचितों के देश में मीत नए मिल गए। कविता की उड़ान ने विश्व एक बना दिया बहती हुई बयार ने भाव-संसार सजा दिया। मीत ये जो मिल गए भावनाओं से जुड़ गए विश्व नया बन गया राग-द्वेष मिट गया। अनदेखे ये मीत जो गा रहे नवगीत जो चल पड़ी परंपरा लिखती नई प्रीत को। एक आस-विश्वास है मन में हुआ प्रकाश है कविता का संसार बड़ा रसमय और खास है। साथ अनवरत सदा मन से मन का बना रहे काव्य-मित्रों की यात्रा यूं सदा चलती रहे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

स्वागत है नवागत

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बीत रहा ये वर्ष, दे विषाद और हर्ष। मिली अमिट स्मृतियां, छिनी कुछ खुशियां। बहुत कुछ सीखा-सिखाया, बहुत कुछ खोया-पाया। बन रहा है अतीत, जिंदगी का एक वर्ष , और हो गया व्यतीत। बढ़े कदम आगे, दिल अतीत को भागे। सरक रहा समय, बंधी बेड़ियां पैरों में, खींचती पीछे। खींचतान में उलझा जीवन, खुशियों का ओढ़ता झूठा लबादा। लगा मुखौटा, चिपका झूठी मुस्कान। करने चला नववर्ष का स्वागत!! स्वागत है नवागत , सबके जीवन का हो उत्कर्ष, सबके मन में हो अब हर्ष। जीवन में कम हो जाए संघर्ष, खुशियां लेकर आए ये वर्ष। सुंदर बन जाए ये नववर्ष। अभिलाषा चौहान

प्यार की हो जैसे छुवन

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प्रेम का मधुमास, चल रही बासंती पवन। स्पर्श उसका लगे जैसे, प्यार की हो छुवन। खिल उठी हैं मंजरी, बह उठी तरंगिनि। कूकती है कोयलिया, सिहर उठा तन-मन। गुनगुनाती धूप भी, करती है स्पर्श ऐसे। छुवन जैसे प्यार की, मन को रंग रही हो जैसे। तन-मन भीग उठा, परस पाकर प्रेम का। मैं मिटा ,अहम मिटा, असर था ये छुवन का। एक इस छुवन से, संसार सारा खिल उठा। गुनगुनाने लगे भंवरे, प्रेम-पुष्प खिल उठा। खुशियां तितलियां बन, संतरंगी सपने दिखाने लगी। मन की वीणा बावरी बन, गीत प्रेम के गाने लगी। राग-द्वेष मिट गया, धुंध सारी छट गई। प्रेम की इस छुवन में, रात अंधियारी मिट गई। दिव्यता का प्रकाश, चहुं ओर जगमगाने लगा। अज्ञानता का हुआ नाश, ज्ञान-सूर्य मुस्कराने लगा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बीती ताहि बिसार दे

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खोल दो कपाट! जो बंद कर लिए हैं हमने, आने दो ताजी हवा! निकल जाए दुर्गंध, जिसने बना दिया , जिंदगी को जहन्नुम! अपने ही दायरे में, सिमट गए हम-तुम। खोल दो कपाट, कि मिट जाएं दूरियां। न रहें मजबूरियां, मिल जाएं मन, दूर हो अनबन। भावनाएं हैं बंदी, बहने दो उन्हें! वर्जनाएं जो लगी, अब टूटने दो उन्हें! क्यों रहें बंद ये कपाट! जाति-धर्म-सम्प्रदाय, के नाम पर, क्यों न खोलकर, नफरतों की धूल झाड़ दें? स्वार्थ को त्याग कर, परमार्थ निखार दें । क्यों न फैलने दें, अब प्रेम की सुगंध! क्यों रखें हम खुद को, पिंजरे में बंद? क्यों न करूणा के फिर से , बादल बरसें! क्यों हम खुलकर, हंसने को तरसे ? बहुत हुआ अब, अब और न होगा ? इन किवाड़ों को, अब खुलना होगा! बीत गया है जो, उसको हम बिसार दें! आने वाले पल को, हम फिर संवार दें ! जिंदगी के उपवन, को फिर से बहार दें। मानव बन कर, मानवता का प्रसार करें।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

बदल गए भगवान....!!!

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आज सुबह मैं,          हनुमान मंदिर गई थी। मन में उलझनों की,          गुत्थियां कई थीं। इतने दिनों की प्रभु ने,          पुकार नहीं सुनी थी कलियुग के भगवान से,         ऐसी आशा तो नहीं थी। मंदिर में मूर्ति को,         हिला हुआ मैंने पाया। देखकर ये बड़ा,         अचरज मन में समाया। मन ही मन मैं,         मूर्ति से पूछ बैठी। आपकी प्रतिमा,        स्थान कैसे छोड़ बैठी? आपने अभी तक,        पुकार मेरी नहीं सुनी। क्या मेरी पूजा में,        रह गई थी कोई कमी? सुनकर मेरी बात,        मूर्ति मुस्कुराई! आंखें मूर्ति की,        आंसुओं से थी छलछलाई। माता-पिता ने कभी,         जाति नहीं बताई। राम ने जाति बिना,        प्रिय सेवक चुना भाई। सेवक का धर्म था,        सबकी सेवकाई। अब तो जाति पर        बात बन गई भाई। आज भक्तगण सारे,        जाति मेरी खोज रहे । जाति की लेकर ,        प्रश्न कई उठ रहे? जब तक अपनी,        जाति का पता नहीं लगाऊंगा। तब तक मैं भी,        किसी के काम नहीं आऊंगा। अब तो मैं भी,         जाति को ही अपनाऊंगा। जो जाति मेरी होगी,         उसी के काम आऊंग

परिवार क्या है !?

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परिवार नाम है, भावनाओं का, प्यार,समर्पण, त्याग, विश्वास, सम्मान, अपनेपन का। परिवार जहां.. खिलते सपने, मुस्कराते अपने, निभाते अपना दायित्व, मोतियों की माला सम, रहते सब एक डोर में बंधे। इनसे रहित परिवार..! बस समूह, ढोता भावनाओं की लाशें! जेल की चहारदीवारी में, बंद कैदियों के सदृश, थोथे स्वार्थों के लिए लड़ते! संकीर्ण मानसिकता, से घिरे असभ्य लोग!! मेरा-तेरा अपना-पराया करते, भूलकर जीवन जीना, जीवन के लिए लड़ते! ये लोग परिवार को, बनाते अखाड़ा!! रोज करते महाभारत, खुद ही बन वकील-जज!! एक-दूसरे पर थोपते, अनचाहे आरोप! इनके मन की सड़ांध! में मर जाती जीवन की गंध। भेंट चढ़ते रिश्ते!! मां-बाप को नोचते-खसोटते!! परिवार को बनाते पाकिस्तान!! आतंक का होता वातावरण.. जहां हंसी का चंद्र!! आतंक के बादलों में छिप जाता, सुख का सूर्य !! सदा के लिए अस्त हो जाता।! अभिलाषा चौहान स्वरचित

भूमिपुत्र की व्यथा

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कृषक, भूमिपुत्र,अन्नदाता! भारतीय अर्थतंत्र का विधाता। आज स्वयं बना फकीर, उसकी दशा हृदय देती चीर। कभी व्यवस्था,कभी प्रकृति, कभी कर्ज,कभी नियति। देती नहीं उसका साथ, महंगाई जैसे कोढ़ में खाज। अन्नदाता के घर में पड़े अन्न के लाले, अपनी बिगड़ती हालत कैसे सम्हाले?? बिचौलियों ने किए उसके दिन काले, छीन लिए इनके मुख के निवाले। बीज और यूरिया की होती कालाबाजारी, किसान ने अपनी अब हिम्मत हारी। खेतों से उसने की है मोहब्बत, बहाता पसीना करता है मेहनत। मिट्टी के मोल बिकती हैं फसलें, बिचौलिए नहीं सही कीमत उगलें। दो पाटों के बीच पिसता है घुन-सा, समझ नहीं पाता है दोष किनका? ऋण माफी की लगाता रहता गुहार, कागज़ों में पूरी होती ऋण माफी की पुकार। योजनाएं उन तक पहुंचती नहीं है, दशा उनकी देखो सुधरती नहीं है। कैसे दुर्दिन किसानों के आए? रोज एक किसान फांसी चढ़ जाए। तड़पता हृदय मन जार-जार रोता, किसानों का दर्द कहां कोई कहां सुनता!! झूठे दिलासों से कहीं पेट भरे जाते हैं, किसानों को नेता झूठे सपने दिखाते हैं। चिंता में डूबा कृषक चिता चढ़ जाता है, परिवार उसका  कितनी ठोकर

वह मीठी मुस्कान

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"मुस्कान"कितना प्यारा है ये शब्द।  मनुष्य के व्यवहार का अनिवार्य अंग है ' मुस्कान'।मुस्कान के कई रूप होते हैं। अलग-अलग अवसरों पर मुस्कान भी अलग-अलग ही होती है। सबसे मासूम और निश्छल मुस्कान होती है,छोटे बच्चों की,एक पल में स्वर्गिक आनन्द की प्राप्ति करा देती है।सारी थकान और सारी परेशानी इस मुस्कान में तिरोहित हो जाती है। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं और बाहरी दुनिया से उनका सरोकार होता है, उनकी मुस्कान में औपचारिकता का समावेश होने लगता है और हम जैसे दुनियादारी में फंसे लोग तो अक्सर मुख पर झूठी मुस्कान लपेटे रहते हैं।ऐसा करने में हम भूल जाते हैं कि हम सच में कब मुस्कराए थे? मुझे आज भी याद है ,वह 'मुस्कान'जो मैंने उस बच्चे के चेहरे पर देखी थी।हुआ यूं कि मैं दिल्ली से जयपुर लौट रही थी,रास्ते में कोटपुतली पर बस रूकी,मैंने खिड़की से बाहर देखा,एक दस-बारह साल का लड़का मैले-कुचैले कपड़े पहने लोगों से खाने को मांग रहा था लेकिन किसके पास इतनी फुर्सत है कि उसकी सुने।मेरे पास दो-तीन बिस्किट के पैकेट और कुछ संतरे थे,मैंने उसे बुलाया और पूछा कि'

भूख जलाती है..!!!!

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भूख!! जलाती है तन को मन को, संसार के समस्त कर्मों के पीछे है यही भूख।। भूख के हैं कई रूप क्षुधातुर नहीं देखता उचित-अनुचित मांगता भिक्षा या जूठन में ढूंढ़ता अपनी भूख का इलाज।। भूखे बच्चों की तड़प, पिता को चढ़ा देती फांसी।। दहेज-लोभियों की भूख निगल जाती किसी की जिंदगी।। सत्ता की भूख भुला देती नैतिक-अनैतिक।। भूख ही जन्मदाता भ्रष्टाचार की।। भूख या पेट की आग निगल जाती संस्कार, नैतिक मूल्य।। भूख देती है, अनचाहे अपराधों को जन्म।। लालच की भूख है सबसे ख़तरनाक, जिसमें स्वाह होते रिश्ते-नाते,मां-बाप और न जाने क्या-क्या?? घर भरे होने पर भी भूख की आग अगर हो बलवती तो जला देती संसार को।। भूख ही बनती है वजह कुकृत्यों की!! भूख.....? जिसके इर्द-गिर्द घूमता है सारा संसार।। अभिलाषा चौहान

ये कैसा देशप्रेम????

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देशप्रेम का ढोल बजाते, देश में भ्रष्टाचार फैलाते। आरक्षण की आग लगाते, जनता को हैं उल्लू बनाते। देशप्रेम है इनको कितना, सत्ता का जो देखे सपना। अपनी-अपनी डफली बजाते, घर को अपने भरते जाते। महंगाई नित बढ़ती जाती, भूख गरीब की न मिट पाती। रोजगार को फिरते युवा, हृदय में उनके उठता धुआं। सैनिक अपनी जान गंवाते, देशप्रेम पर बलि हो जाते। उनके नाम पर होती राजनीति, देश की रक्षा पर करें अनीति। देश प्रेम का गाते गाना, देश का खुद ही लूटें खजाना। कुर्सी केवल इनको है प्यारी, नीति-अनीति भी इनसे हारी। जाति-धर्म को मुद्दा बनाए जनता में हिंसा भड़काएं। देश की लिए जो हुए बलिदानी, वे बन गए बस एक कहानी। अब सब करते हैं मन मानी, देश प्रेम की बस यही कहानी। अभिलाषा चौहान स्वरचित

मैं कविता

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मैं कविता! भावों से निःसृत सरिता, न जाने कितने.. कालखंडों से प्रवाहित। समाए हुए, इतिहास और भावों, की लहरें तरंगित, अविरल.. बहती ही जा रहीं हूं। मैं भावों की, अनुगामिनी , बनी प्रेम की फुहार! कभी वीर की हुंकार ! कभी बनी वियोगिनी! बनी भक्ति की तरंगिणी! कभी निर्जीव,सुषुप्त, जगती में फूंकती हूं प्राण। अन्याय,अत्याचार हो, या शोषण का खेल! उठते हैं ज्वार, करती हूं विरोध प्रखर। युग परिवर्तन का, छेड़ती राग। हृदय का अंधकार भी, मेरे प्रभाव से, गया भाग। पहुंच गई वहां, जहां न पहुंचा रवि! जन-जन के भावों में, प्रतिबिंबित मेरी छवि। बंधन में बंधी, छंद में पगी, मुक्त होकर मैं! और निखर उठी। रूप हो कोई, भाव हैं वहीं, मैं हृदय-तंत्री का तार! मैं सुरों की पुकार! अनुभूति मेरी जननी, शब्दार्थ है शरीर, भाव(रस) मेरे प्राण, अलंकृत मेरा शरीर, मैं दुखी हृदय का गान! मैं साहित्य की शान! बहती रही निरंतर.. थी समय की जैसी मांग!! अभिलाषा चौहान स्वरचित

चंद हाइकु

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  *      आदर्श तुच्छ           सांस्कृतिक पतन           नीतियां गौण‌‌‌।   *       धन-प्रबल           जीवन-उपेक्षित           भावना गौण ।               *       जनता दुखी           राजनीति-प्रपंच           मूल्य हैं गौण ।                            *      वृद्ध मां-बाप           पड़े हैं वृद्धाश्रम           रिश्तें हैं गौण ।     *    भाव-विहीन           कर्तव्य-कर्म गौण           जड़ हैं जन।           अभिलाषा चौहान           स्वरचित

शिशिर का प्रभाव

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शिशिर का प्रभाव बदले प्रकृति के हाव-भाव सूर्य को लगी ठंड आग भी पड़ी मंद धूप थी कांपती गर्मी भी मुख ढ़ांपती शिशिर से थी डर रही जमने लगे वजूद कंपकंपाते हाड़ कड़कड़ाती ठंड था शिशिर बड़ा प्रचंड फसलों को बना निवाला खुश हो रहा था पाला थी ओस भी जमी वृक्षों की सांस भी थमी पशु-पक्षी भी व्याकुल से सूर्य का मुंह ताकते बादलों के लिहाफ से सूर्यदेव झांकते छुड़ा के सबके छक्के शिशिर ने दिखाए इरादे पक्के जम रहा था सब कुछ आदमी के अंदर था बन गया वह बुत संवेदनाओं से हो रहित। ये शिशिर का प्रभाव या कि आदमी का स्वभाव। अभिलाषा चौहान स्वरचित

कर्त्तव्य-कर्म का भान नहीं..!

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कर्त्तव्य कर्म का ज्ञान नहीं, निज मनुज-धर्म का भान नहीं। वो भार लिए है जीवन का, जिसे मंजिल की पहचान नहीं। जीवन से जुड़े कर्त्तव्य सभी, जिसने पूरे कभी किए ही नहीं। जिसने स्व से ऊपर उठकर, पर के लिए कभी सोचा ही नहीं। जिसने करूणा के जल से , घाव किसी का धोया ही नहीं। वो पाषाण-हृदय क्या जानेगा, कर्त्तव्य-कर्म की महिमा कभी। जो अपने सुख के लिए ही जिए, दूसरों को जिसने दुख ही दिए। वह मानव क्या कहलाएगा! दानव से किए जिसने कर्म सभी। कर्त्तव्य यही बस मानव का, धर्म-जाति से ऊपर उठे। परमार्थ और सदाचरण से मानवता का परिष्कार करें। प्रेम,अहिंसा,शांति का संसार में वह प्रसार करे। निज कर्तव्यों का पालन कर, जग-जीवन का उद्धार करे। अभिलाषा चौहान

नदी की व्यथा

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मैं सरिता पावन निर्मल, बलखाती बहती अविरल। करती रही धरा को सिंचित, भेद किया न मैंने किंचित। निर्मल सुन्दर मेरी धारा, स्नेह लुटाती रहती सारा। व्यथित बहुत हूं मैं इस जग से, बांध दिया है मुझको जबसे। कलुष उड़ेला अपना सारा, मैला,कचरा डाल अपारा। घुटता दम बहते हैं आंसू, व्यथा बहुत है कहूं मैं कांसू। जीर्ण-शीर्ण मैं होती जाऊं, फिर भी अविरल बहती जाऊं। मलिन हुई मेरी जलधारा, सबने मुझसे किया किनारा। मां कहते-कहते नहीं थकते, मेरी दशा को कभी न तकते। ऐसा न हो मैं थक जाऊं, बहते-बहते मैं रूक जाऊं। तब क्या होगा सोचा-विचारा, हृदय मेरा अब हिम्मत हारा। अभिलाषा चौहान स्वरचित

शहनाई और बिस्मिल्ला खां

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शहनाई का जिक्र भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खां के जिक्र के बिना अधूरा है, एक सामान्य से लोक वाद्य-यंत्र को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है। बिहार के डूमरांव में जन्मे अमीरूद्दीन का पालन-पोषण संगीत की लय और तान के बीच ही हुआ था।५-६ वर्ष की अवस्था में वे अपने नाना के यहां काशी आ गए।नाना और मामा काशी के पुराने बालाजी मंदिर के नौबतखाने में शहनाई वादन करते थे। यहां बालक अमीरूद्दीन को अपने चारों ओर शहनाईयां ही दिखाई देती। फिर उसे भी रियाज के लिए बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में भेजा जाने लगा।काशी तो है ही संगीत की नगरी, नौबतखाने की ओर जाते हुए अमीरूद्दीन को हर घर से संगीत की स्वर-लहरियां सुनाई देती। जिन्हें सुन-सुनकर उसे संगीत के आरोह-अवरोह का बखूबी ज्ञान हो गया था। धीरे-धीरे शहनाई और बिस्मिल्ला खां एक-दूसरे के पूरक बन गए।काशी में आयोजित संगीत समारोह उनके बिना अधूरे रहते। बढ़ती ख्याति केसाथ ही शहनाई-वादन में उनकी सिद्धहस्तता बढ़ती चली गई। देश-विदेश में होने वाले शास्त्रीय संगीत समारोह में उनका शहनाई-वादन अनिवार्य सा हो गया। शहनाई में तो जैसे उनकी जान बसती थी।

वेदना......!!!!

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असीम वेदना से पीड़ित ये नारीं, परित्यक्ता,विधवा, दुष्कर्म की मारी। बिना किसी अपराध झेलती दंड, समाज भी छुड़ा लेता अपना पिंड। सीता,शंकुतला, यशोधरा की व्यथा, किसी ने कहां सुनी इनकी कथा। भोगती रही दंश असीम वेदना का, अकेलेपन और परित्यक्ता होने का। स्थितियां कभी कहां बदलती हैं!! आज भी नारियां ये दंश झेलती है। वैधव्य भोगती हो जो अबला! परिवार मानता है उसे बला!! मनहूस कहकर जाती दुत्कारी, पीती आंसू वह वेदना की मारी। दुष्कर्म की मारी, समाज से हारी, जीवन हो जाता उसके लिए भारी। मरतीं हैं ये रोज थोड़ा-थोड़ा, समाज ने इनसे अपना नाता तोड़ा। भोगती निरपराध दंड अपराध का, बन जाती जो नासूर उस वेदना का। कौन समझता है भला इनका द्वंद्व, क्योंकि लोग हैं दृष्टिहीन और मंतिमंद।। अभिलाषा चौहान

ओ माँ!!

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मां, तू जीवन दात्री, तू ही है भगवान, मुझमें नहीं शक्ति कर पाऊं तेरा गुणगान। मां, तू ममता की मूरत अतुल्य अनुपम, किसी भी हाल में तेरी ममता न हो कम। मां, तुझसे ही जीवन, तुझसे ही संस्कार, तू ही प्रथम गुरू, मेरे जीवन का करे उद्धार। मां, तू अंतर्मन भी मेरा पहचान लेती है, बिना कहे तू मेरा ख्याल रखती है। मां, संकट में मुझे बस तू ही याद आती है, चिंता से घिरूं तो साथ तुझे पाती हूं। मां, मेरे कानों में गूंजते सदा तेरे बोल हैं, कठिन से कठिन क्षणों में देते रस घोल हैं। मां, तेरी ममता तेरा धैर्य याद आता है मुझे, तुझसे दूर होने पर यही संबल बंधाता मुझे। मां, तुम साथ न होकर भी सदा साथ होती हो, तुम मेरे शरीर में सदा हृदय बन धड़कती हो। मां, तेरी ममता को मां बनके समझ पाई हूँ, मां बनकर भी मैं बड़ी नहीं हो पाई हूँ। मां, तू मेरी शक्ति और तू ही सहारा है , मां, तुझसे ही मेरा ये परिचय सारा है। मां, तेरी ममता बड़ी ही अनमोल है, जीवन भर भी इसका चुकेगा न मोल है। मां, तेरी ममता का लिए शब्द नहीं पास मेरे, मां, तेरी महानता के लिए उद्गार नहीं पास मेरे। अभिलाषा चौहान स्वरचित

तुलसी का मोहभंग....!!

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तुलसीदास जपते सदा, राम का नाम। मन में भक्ति-भाव का, होता नहीं अहसास। काशी रह अध्ययन करें, मन में पत्नी वियोग, कैसे रत्ना से मिलें? कैसे हो संयोग? विरह वेदना बलवती!! चल पड़े तुलसीदास, मेघ बरसता अति भारी, तुलसी ने ने मानी हार!! उफन रही यमुना नदी, न रोक सकी थी राह। पत्नी से मिलन की, मन में थी अति चाह। अर्द्धरात्रि जा पहुंचे चुपके, वे रत्ना के पास। रत्ना जडवत रह गई, ऐसी थी न आस!! लोक-लाज मर्यादा का, नाथ किया न ख्याल। ऐसे भी कोई भला, आता है ससुराल। सुंदर रत्नावली, थी विदुषी नारी। पति के अंधे मोह पर, करते सोच-विचार, बोल उठी वह धीरे से- हाड़-मांस की देह से, प्रियतम इतना नेह!! यदि करते तुम राम से, इतना ही स्नेह!! भक्ति होती सफल, मिलता राम का नेह।। पत्नी के शब्दों से, तुलसी का जागा विवेक! "मोहभंग "हुआ उनका!! त्याग चले वे गेह। राम-राम रसना रटे, आंखों से अश्रु-धार। राम बिना अब जीवन में, कुछ भी नहीं स्वीकार।। अभिलाषा चौहान स्वरचित

साया .....!!

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यादों के जंगल में, अतीत के साये!! लिपट जाते हैं, सूखे तिनकों की तरह। लाख चाह कर भी, नहीं निकल पाते , इस भूल-भुलैया से..। मन बढ़ता दो कदम आगे, लौटता चार कदम पीछे..! लिपटा उन्हीं सायों से । जिसमें वर्तमान अक्सर.. ठिठक जाता मेहमान की तरह। थम जाता है प्रवाह, उन्नति का...! हम बने मूक दर्शक!! उलझे रहते हैं, सत्य की तलाश में..। यह सत्य जो हमेशा, चलता साये की तरह साथ, कि, जीवन और मृत्यु में, बस है शरीर का फासला .. शरीर साया है आत्मा का, चलता है तभी तक साथ, जब तक है आत्मा को मंजूर !! अभिलाषा चौहान स्वरचित