मैं कविता

मैं कविता!
भावों से निःसृत सरिता,
न जाने कितने..
कालखंडों से प्रवाहित।
समाए हुए,
इतिहास और भावों,
की लहरें तरंगित,
अविरल..
बहती ही जा रहीं हूं।
मैं भावों की,
अनुगामिनी ,
बनी प्रेम की फुहार!
कभी वीर की हुंकार !
कभी बनी वियोगिनी!
बनी भक्ति की तरंगिणी!
कभी निर्जीव,सुषुप्त,
जगती में फूंकती हूं प्राण।
अन्याय,अत्याचार हो,
या शोषण का खेल!
उठते हैं ज्वार,
करती हूं विरोध प्रखर।
युग परिवर्तन का,
छेड़ती राग।
हृदय का अंधकार भी,
मेरे प्रभाव से,
गया भाग।
पहुंच गई वहां,
जहां न पहुंचा रवि!
जन-जन के भावों में,
प्रतिबिंबित मेरी छवि।
बंधन में बंधी,
छंद में पगी,
मुक्त होकर मैं!
और निखर उठी।
रूप हो कोई,
भाव हैं वहीं,
मैं हृदय-तंत्री का तार!
मैं सुरों की पुकार!
अनुभूति मेरी जननी,
शब्दार्थ है शरीर,
भाव(रस) मेरे प्राण,
अलंकृत मेरा शरीर,
मैं दुखी हृदय का गान!
मैं साहित्य की शान!
बहती रही निरंतर..
थी समय की जैसी मांग!!


अभिलाषा चौहान
स्वरचित









टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर रचना,अभिलाषा दी।

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर विश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

      हटाएं
  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!!! बधाई विश्व कविता दिवस की!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर विश्व कविता दिवस की हार्दिक बधाई

      हटाएं
  3. सार्थक प्रस्तुति मैं कविता भावों से निसतृत सरिता
    कविता दिवस की शुभकामनाएं अभिलाषा जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी 🙏🌹 सादर विश्व कविता दिवस की हार्दिक बधाई

      हटाएं

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