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अप्रैल, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आह!वेदना मुझमें सोती….!

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आह!वेदना मुझमें सोती, जग की पीड़ा देख के रोती। चुभती है अपनों की घातें, ये दुख की जो काली रातें। विरह-व्यथा की कटु कहानी, कैसै कहूं मैं अनजानी। बन के कविता हुई प्रस्फुटित, हृदय भाव जिसमें उर्जस्वित। आह!वेदना करती व्याकुल, हृदय मची रहती है हलचल। याद आती है बीती बातें, जग की भीड़, अकेली रातें। घुट-घुट के हर पल को जीना, अपने आंसू आप ही पीना। ओढ़ मुखौटा मुस्कानों का, अपने-आप से लड़ते रहना। आह!वेदना कोई न समझे, जीवन का हर पल है उलझे। मेरा रोना,हंसना जग का, मैं मोहरा सबकी बातों का। प्यार जता कर शूल चुभाना, जग का है ये खेल पुराना। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सुप्त वेदनाएं

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सुप्त वेदनाएं , बंजर होती हृदय की जमीं !! सूखे अश्रुनिर्झर, सूखे मन सरोवर ! न बरसे ‌करूणाघन .. न भीगा मन का आंगन...! तृषित मानवता..!! बन पपीहा, लगाती टेर, कोई सुन ले पुकार...! खोले मन के द्वार, उमड़ पड़े वेदना, सागर सम, लहराती। जग की पीड़ा देख, बरस उठे करूणाघन। सिंचित हो जमीं हृदय की। तप्त मानवता.! पाए छांव वेदना की..! जो जननी करूणा की। जिनसे पोषित मानवता, फिर करे सद्भावों की खेती । अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

अंतहीन धूप

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वे बुझाने आग पेट की...? तोड़ते पत्थर, ढोते गारा, हल चलाते, बहाते पसीेना, करते मजदूरी, कि....., आ जाए जीवन में खुशियों की छांव मिले छुटकारा...? इस कड़ी धूप से जो जलाती है...! बाहर-भीतर, और भस्म कर देती है, खुशियां सारी....!! रह जाती है बाकी बस तपती धूप...!! अंतस को भेदती, अंतहीन धूप... जिसमें सिमट जाता है, उनका पूरा जीवन...? अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

सज गई अमराईंयां

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आमवृक्ष ने पहन लिए, मंजरियो के हार। जैसे दूल्हे सज गए, करके अपना श्रृंगार। कोयल कुहुक-कुहुक कर, छेड़ें शहनाईयों की तान। धरती पर अमराईयों के, तन गए हैं वितान। छोटी-छोटी अमियों के, आभूषण हैं पहने। सुंदर लगते वृक्ष सलोने, हरे-भरे चमकीले। देख घनी अमराईयां, निकल पड़ीं है टोली। संगी-साथी, हमजोली, सभी सखी-सहेली। कच्ची-कच्ची अमियां, मुंह में पानी आए। कैसे-कैसे करें जतन, कैसे अमियां पाएं। साथ लिए हैं नमक-मिर्च की, छोटी-छोटी पुड़िया। छुप-छुप कर ताक रहें हैं, कच्ची-कच्ची अमियां। किसी युद्ध से कम नहीं, कच्ची अमियों को पाना। तोड़ -तोड़ कर, छुप-छुप कर , खाना और खिलाना। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

वक्त की इबारतें

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जिंदगी के कोरे पन्नों पर, वक्त ने लिखीं इबारतें। दुःख की स्याही ने, उकेरे चित्र अनेक। सुख ने लिखीं , कविताएं मनभावन। आनंद ने गाए , मंगलगीत अनोखे। सजने लगी किताब, भरने लगे पन्ने...!! बनने लगा, कर्मों का बही-खाता। अच्छे-बुरे का, होने लगा हिसाब। खाली पन्नों पर होने लगा गुणा-भाग। अनुभव बना खजाना, अनुभव की रोकड़.! जिंदगी के पन्नों पर, बिखरी बेहिसाब!! बाजार में भी नहीं मिलता ये, मांगने से भी नहीं मिलता ये। मिलता है जिंदगी के पन्नों में, उस बही-खाते में, जिसे जिंदगी की ठोकरें, लिखती हैं ... अपनी ही तरह।। अभिलाषा चौहान

धर्म-अधर्म

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धर्म ,बोलता कर्म की वाणी, धर्म नहीं कोई कथा-कहानी। सृष्टि के हर कण में बसे हैं, जड़-जगंम सब में निखरे है। बहती हवा दे सबको जीवन, पानी दे सबको संजीवन। प्रकृति के जीवों का रक्षण, धर्म मनुष्य का कर्तव्य-पालन । धर्म कहां हमें लड़ना सिखाए, वह तो कर्म की राह चलाए। धर्म न करता अपना-पराया, वह तो सद्भाव का पाठ पढ़ाए। धर्म में जग-कल्याण निहित है, इंसानियत श्रेष्ठ धर्म अभिहित है। लेकिन धर्म पर काली छाया छाई, धर्म -अधर्म की दूरी मिटाई। धर्म की ध्वजा उठाकर चलते, धंधा धर्म को बनाकर रखते। धर्म कभी न करते धारण , उसको ढाल बनाकर चलते। कर्म रहे जिनके सदा मैले, ऐशो-आराम के रहे जो चेले। भोग-विलास में हरदम डूबे, धर्म को अधर्म बना कर रखते। जातिवाद का चढ़ा मुलम्मा, धन से धर्म को करे निकम्मा। उसके नाम पर लूट मचाएं, आपस में जनता को लड़वाते। ऐसे अधर्मी क्या धर्म को जाने, धर्म का मर्म कहां पहचाने। धर्म के पथ पर चल न पाएं, जनता को भ्रम में भटकाएं। धर्म की है जो असली वाणी, भूल गए सब हुआ धर्म बेमानी। ************************************************************             

मैं की तलाश

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तलाश स्व की अंतहीन स्वयं में ,मैं को खोजते कब सरक जाती है जिंदगी हाथ से..। अहम और मैं अंतर हैं सूक्ष्म अहम में सर्वोपरि सत्ता स्वयं की जबकि ,मैं जानना ,उस अनादि सत्य को। मैं ,से साक्षात् उस अनंत से तादात्म्य जिसमें समाहित अखिल ब्रह्माण्ड मैं,तुम और सब। मैं और बस मैं जनक है अहम का जबकि जैसा मैं वैसे सब जनक है समत्व का। मैं ,आखिर है अनादि ,अनंत ,अखंड सर्वेश,सर्वव्यापी। मैं की पहचान है स्वयं से पहचान जीवन-उद्देश्य से साक्षात् तुच्छ मनोवृत्ति का त्याग। दरअसल मैं, को पकड़ना है भ्रमजाल, सिर्फ मैं अहंकार का जनक यह ,मैं वह ,जो कभी नहीं बन सकता ,किसी का स्वयं का भी। अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक

मैं प्रकृति हूं, मैं शक्ति हूं

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मेरे कुंतल काले घुंघराले, गजरों से सुंदर शोभित हैं। ये हाथ मेरे मेंहदी वाले, आभूषणों से सुसज्जित हैं। मैं कमलाक्षी हूं मृगनयनी, अधरों पर मेरे स्मित है। मैं सौंदर्य में उर्वशी-रंभा हूं, मैं आदिशक्ति-जगदंबा हूं। मैं जन्मदात्री हूं इस जग की मैं पालनहारी इस जग की  मैं प्रकृति हूं , मैं शक्ति हूं, मैं माया और आसक्ति हूं। मैं अखिल विश्व की शोभा हूं। मैं संचालिका हूं सृष्टि की, मैं संहारिका आसुरी शक्ति की। मैं जीवनदायिनी गंगा हूं। मैं वीणावादिनी प्रज्ञा हूं। हूं ममता मैं,हां क्षमता मैं, जीवों में हूं विषमता मैं। मैं हूं वसुधा, मैं हूं धरिणी, मैं संकट कलिमल हूं हारिणी। मैं चुप हूं,मेरी संतान हो तुम, मत समझो खुद को स्वामी तुम। मेरे नयन केन्द्रित हैं तुम पर, मत करो अति अत्याचारों की। मैं भृकुटी यदि टेढ़ी कर लूं, प्रकृति में ताड़व नर्तन होगा। मेरा नेत्र तीसरा खुल जाए, अखिल विश्व भष्मीभूत होगा। मेरी शक्ति को कम न आंको, मर्यादा अपनी तुम मत लांघो। यह मेरी तुमको अंतिम चेतावनी, नहीं तो जैसी करनी वैसी भरनी। ©अभिलाषा चौहान स्वरचित मौलिक