सुप्त वेदनाएं

सुप्त वेदनाएं ,
बंजर होती हृदय की जमीं !!
सूखे अश्रुनिर्झर,
सूखे मन सरोवर !
न बरसे ‌करूणाघन ..
न भीगा मन का आंगन...!
तृषित मानवता..!!
बन पपीहा,
लगाती टेर,
कोई सुन ले पुकार...!
खोले मन के द्वार,
उमड़ पड़े वेदना,
सागर सम,
लहराती।
जग की पीड़ा देख,
बरस उठे करूणाघन।
सिंचित हो जमीं हृदय की।
तप्त मानवता.!
पाए छांव वेदना की..!
जो जननी करूणा की।
जिनसे पोषित मानवता,
फिर करे सद्भावों की खेती ।


अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    २९ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. जग की पीड़ा देख,
    बरस उठे करूणाघन।
    सिंचित हो जमीं हृदय की।
    तप्त मानवता.!
    पाए छांव वेदना की..!
    बेहतरीन पंक्तियाँ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर सार्थक लेखन हेतु शुभकामनाएं आदरणीया अभिलाषा जी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय,आप लोग ही हमारे
      प्रेरणा स्त्रोत है।

      हटाएं
  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  5. तप्त मानवता.!
    पाए छांव वेदना की..!
    जो जननी करूणा की।बहुत ही सार्थक पंक्तियाँ प्रिय अभिलाषा जी | सचमुच वेदना से ही करुना उपजती है जिससे तप्त मानवता तृप्त हुआ करती है | सराहनीय सृजन वेदना के नाम | सस्नेह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार सखी,आप ही प्रेरणास्रोत हैं,आपकी
      टिप्पणियां और रचनाएं मन में ऊर्जा भर देती हैं।
      अभी व्यस्तता के चलते मैं ज्यादा सक्रिय नहीं हो पा रहीं हूं,किसी के ब्लाॅग पर जाकर टिप्पणी नहीं
      कर पाई,उसके लिए क्षमा चाहती हूं।

      हटाएं
  6. सहृदय आभार सखी,आप ही प्रेरणास्रोत हैं,आपकी
    टिप्पणियां और रचनाएं मन में ऊर्जा भर देती हैं।
    अभी व्यस्तता के चलते मैं ज्यादा सक्रिय नहीं हो पा रहीं हूं,किसी के ब्लाॅग पर जाकर टिप्पणी नहीं
    कर पाई,उसके लिए क्षमा चाहती हूं।

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