जीवन के दोराहे पर








जीवन के दोराहे पर

लक्ष्य तक मुश्किल पहुंचना

आंख में अंबुद बसा है

कैसे संभव है किलकना।


विवशता बंधन बनी 

रास्ते शूलों भरे हैं

घाव मन के टीस देते

आज भी वैसे ही हरे हैं

छटपटाती मीन जैसे

प्राण का मुश्किल निकलना।


शून्यता डाले बसेरा

हास्य अधरों से छिना है

केंचुली रिश्तों की उतरे

हार को सबने गिना है

धूप तन को है जलाए

चांदनी में भी झुलसना।


भोर धुंधली आस की जब

बादलों से दुख बरसते

कौन है वो है कहां पर

नैन जिसको हैं तरसते

है पथिक भटका हुआ जो

उसका संभव है फिसलना।


अभिलाषा चौहान 




कितने विवश हैं हम


खेत में खड़ी फसल पर

ओलों की मार

आकाश में उड़ते बादलों

से बारिश की मनुहार

बीज बुआई के बाद

बारिश की आस

नदियों के सिमटते आकार

दरकते पहाड़ों का हाहाकार

व्यग्र धरा की पुकार

प्रकृति का रौद्रावतार

सूखे कुओं में प्यासी बाल्टियां 

पोखर में तरसती मछलियां 

झोंपड़े में धधकती भूख

आग की लपटों में

भस्मीभूत खलिहान

फुटपाथ पर फैले हाथ

मखमली गद्दों पर करवटें 

एसी में टपकता पसीना

तपती धूप में श्वेद से शीतल तन

थैले भर पैसों में मुट्ठी भर

जरूरतें

अस्पताल की चौखट पर

सांसों का संग्राम

सड़कों पर मंडराती मौत

कितने विवश हैं हम

सत्य को नकारते

स्वयं से हारते

झूठ का मुखौटा लगाए

जिंदगी को तिजोरी में बंद कर

कर रहें हैं संग्राम

जिंदगी के लिए

कितने विवश हैं हम

कुछ भी नहीं है...!

पर सब कुछ होने का करते हैं ढोंग

सत्य को अनदेखा कर

भरते श्रेष्ठता का दंभ

कितने विवश हैं हम ....??


अभिलाषा चौहान 


हे ईश्वर....

 



हे ईश्वर!

मुझमें है तेरा अंश

तूने चुना है मुझे

संघर्ष के लिए

तेरा मुझमें होना

यही है सर्वस्व

मेरे होने का क्या महत्व

महत्व है तेरे होने का 

तू साथ है

पग-पग पर विश्वास है

इस मायावी दुनिया में

भ्रमित मन

जब भी तुझे भूलता है

तभी उस अहम को

एक पल में करा देता है

 नगण्यता का अहसास

करा देता है कर्तव्य बोध

चल पड़ते हैं कदम

उन कंटीली राहों पर

जिसे चुना है तूने

सिर्फ मेरे लिए

हे ईश्वर...!

तेरा बोध

दुख के समंदर में

देता है सहारा

बस तू ही है मेरी आस

जन्मों की प्यास

मन का उजास।


अभिलाषा चौहान