मैं कर्त्ता हूं...!!







"मैं कर्त्ता हूं "यह सत्य मानकर कर मनुष्य सदा भ्रम का जीवन जीता है।वह स्वयं को सदैव अंधेरे में रखता है।यह जानते हुए भी कि उसके पैदा होने से पहले और उसके जाने के बाद भी यह दुनिया उसी तरह चलती रहेगी जैसे उसके सामने चल रही है।

सही मानिए कि जिस मनुष्य इस भ्रम से मुक्त हो जाएगा ,उस दिन ना जाने कितनी समस्याओं का अंत स्वत ही हो जाएगा।पर युग बीत गए लेकिन मनुष्य इस भ्रम को सत्य मानकर जीवन जीता आ रहा है।

भौतिक सुखों का दास बनकर जीवन भर भौतिक सुखों का संग्रह करता है और फिर उनका मालिक बनकर स्वयं को कर्ता मान बैठता है, यहीं से सारी समस्याएं जन्म लेती हैं,जीवन का उद्देश्य क्या है?जीवन का वास्तविक अर्थ क्या है?जीवन का आनंद क्या है?वह कभी जान नहीं पाता!!

एक मनुष्य के लिए गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप है।अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने और सृष्टि के सृजन में अपना योगदान देने के लिए संतानोत्पत्ति करना, उन्हें अच्छे संस्कार देना, उन्हें योग्य बनाना और संसाधन जुटाना यहां तक तो ठीक है, सब बढ़िया है पर जब संतान योग्य हो जाए तो भी स्वयं को सर्वेसर्वा मानकर परिवार का संचालन अपने ही हाथों में रखना ग़लत है।आप अपने जीवन के अंतिम चरण में खुशियों से इसीलिए महरूम रहते हैं कि आपकी कर्ता बनने की आदत नहीं जाती।आपके बच्चे पचास भी पार कर लें तब भी आप चाहते हैं कि वे सिर्फ आपके अनुसार चलें।आपको अपनी परवरिश पर ही भरोसा नहीं होता,जो स्वयं पिता बन चुका है उसे आप सही-गलत का चयन करने के लिए निर्देश देते हैं। ऐसे में फिर मतभेदों का जन्म होता है,ये मतभेद समय और विचारों पर आधारित होते हैं।फलतः संबंधों में दूरियां आती हैं।आप का कर्त्तत्व भाव आहत होता है तो आप स्वयं को उपेक्षित मानते हैं। घर-परिवार में विघटन होता है और विघटन ना भी हो तो घर कुरुक्षेत्र बन जाता है। इसलिए उचित यही है कि इस भ्रम से शीघ्र मुक्त हों कि" मैं ही कर्ता हूँ"आप किसी कार्य के निमित्त या हेतु बन सकते हैं पर आप उसे "कर्त्ता"मानकर मत कीजिए।यह सबकुछ यहीं रह जाना है।

जीवन चलने का नाम है। हमारे वश में क्या है?इस सृष्टि में सब कुछ अपने आप नियमित रूप से घटित होता है।हम बीज बो सकते हैं पर उससे अंकुर निकलेगा या नहीं,ये हम भी नहीं जानते,फिर हम कर्त्ता कैसे हुए?

हम स्वयं को कर्त्ता मानकर विकास के नहीं विनाश के साझी बनते जा रहें हैं।वन, पर्वत,नदी,नाले हम कर्ता बनकर नष्ट कर रहें हैं।हमने सृष्टि के साथ भी खिलवाड़ किया है।आज जो दुष्परिणाम हमारे सामने है,वो हमारे कर्त्तत्व भाव के कारण ही हैं।हमारे जीवन का उद्देश्य पूर्व निर्धारित है, हमें सृष्टा के बनाए नियमों का पालन करना है असल में वही कर्त्ता है और हम उसे भुलाकर स्वयं ही इस पूरी दुनिया के मालिक बनना चाहते हैं।उसने पंचमहाभूतों से इस सृष्टि का निर्माण किया और हमने इन पंचमहाभूतों को दूषित कर दिया।जब हम अपने प्राणों को अपने वश में नहीं कर सकते,मृत शरीर को जीवन नहीं दे सकते तो फिर हम हैं क्या?

हम कुछ भी नहीं,हम सिर्फ धूल का एक कण मात्र हैं लेकिन हमारा अहम हमें कभी इस सत्य को स्वीकार नहीं करने देता।जीवन में सुख स्वामी बनकर नहीं बल्कि सेवक बनकर ही पाया जा सकता है।यही जीवन का उद्देश्य भी है और सुख का द्वार भी पर आजकल सब स्वामी है और यही स्वामित्व का भाव हर टकराव का कारण भी है और दुख का दाता भी।

वैचारिक टकराव में,मैं के सर्वस्व
होने का भाव ही सबसे ज्यादा होता है।यह मैं इंसान को स्वार्थी और स्वामी दोनों बनने के लिए प्रेरित करता है। निस्संदेह हम दुख का द्वार स्वयं ही खोलते हैं।
हमें यह सोचना चाहिए कि कर्म प्रधान इस जीवन में कर्मफल पर भी हमारा अधिकार नहीं क्योंकि कर्मफल उसके हाथ में है तो हमें सोचना चाहिए कि हम मात्र निमित्त है कर्त्ता नहीं।माना कि हम कर्म करने के कारण कर्ता बन जाते हैं,यह भाव गलत भी नहीं है पर इसके साथ अहम का भाव जोड़ना गलत है।ये दुनिया सदियों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहेगी पर हम इसमें नहीं होंगे।जब हमारा होना ही हमारे हाथ में नहीं तो फिर यह सोचना कि आपके बिना जिंदगी रुक जाएगी।आप नहीं करेंगे तो कुछ नहीं होगा ,सब ग़लत है।

अभिलाषा चौहान 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 23 जून 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

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  3. अभिलाषा जी, आपने लाख टके की बात कही है
    लेकिन
    कितनी भी उम्र हो जाए पर न तो मोह छूटता है, न ही अहंकार !

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    1. सही कहा आपने आदरणीय पर अंत में तो सब छूट ही जाता है तो हम पहले क्यों ना छोड़ दें सही समय पर सांसारिकता से विरक्ति जरुरी है।इससे अंत सुखद हो जाता है।आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

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  4. बहुत बढ़िया लेख। ये मोह मोह के धागे।

    इस सत्य से तो सभी अवगत हैं, बस स्वीकार नहीं कर पाते।

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    1. सहृदय आभार रूपा जी आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

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  5. उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए प्रेरणास्रोत है सादर

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