नदी की व्यथा

मैं सरिता पावन निर्मल,
बलखाती बहती अविरल।
करती रही धरा को सिंचित,
भेद किया न मैंने किंचित।
निर्मल सुन्दर मेरी धारा,
स्नेह लुटाती रहती सारा।
व्यथित बहुत हूं मैं इस जग से,
बांध दिया है मुझको जबसे।
कलुष उड़ेला अपना सारा,
मैला,कचरा डाल अपारा।
घुटता दम बहते हैं आंसू,
व्यथा बहुत है कहूं मैं कांसू।
जीर्ण-शीर्ण मैं होती जाऊं,
फिर भी अविरल बहती जाऊं।
मलिन हुई मेरी जलधारा,
सबने मुझसे किया किनारा।
मां कहते-कहते नहीं थकते,
मेरी दशा को कभी न तकते।
ऐसा न हो मैं थक जाऊं,
बहते-बहते मैं रूक जाऊं।
तब क्या होगा सोचा-विचारा,
हृदय मेरा अब हिम्मत हारा।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

टिप्पणियाँ

  1. अभिलाषा दी, इंसान यदि नदी की व्यथा को समझ ले तो इंसान का खुद का जीवन संवर जाएगा। बहुत ही सुंदर रचना।

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