शहनाई और बिस्मिल्ला खां
शहनाई का जिक्र भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खां के जिक्र के बिना अधूरा है,
एक सामान्य से लोक वाद्य-यंत्र को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है।
बिहार के डूमरांव में जन्मे अमीरूद्दीन का पालन-पोषण संगीत की लय और तान के बीच ही हुआ था।५-६ वर्ष की अवस्था में वे अपने नाना के यहां काशी आ गए।नाना और मामा काशी के पुराने बालाजी मंदिर के नौबतखाने में
शहनाई वादन करते थे। यहां बालक अमीरूद्दीन को अपने चारों ओर शहनाईयां ही दिखाई देती। फिर उसे भी रियाज के लिए बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में भेजा जाने लगा।काशी तो है ही संगीत की नगरी, नौबतखाने की ओर जाते हुए अमीरूद्दीन को
हर घर से संगीत की स्वर-लहरियां सुनाई देती।
जिन्हें सुन-सुनकर उसे संगीत के आरोह-अवरोह का बखूबी ज्ञान हो गया था। धीरे-धीरे
शहनाई और बिस्मिल्ला खां एक-दूसरे के पूरक बन गए।काशी में आयोजित संगीत समारोह उनके बिना अधूरे रहते। बढ़ती ख्याति केसाथ ही शहनाई-वादन में उनकी सिद्धहस्तता बढ़ती चली गई। देश-विदेश में होने वाले शास्त्रीय संगीत समारोह में उनका शहनाई-वादन अनिवार्य सा हो गया।
शहनाई में तो जैसे उनकी जान बसती थी।श्रेष्ठता का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया था।
उन्हें अन्यान्य पुरस्कारों के साथ भारत-रत्न जैसी श्रेष्ठतम उपाधि से विभूषित किया गया।
उनकी जीवनशैली अत्यंत सादगीपूर्ण थी।वे खुदा से रात-दिन अपने लिए स्वर ही मांगा करते।"खुदा कुछ दे न दे,बस शहनाई को स्वर अता कर ।"ऐसा भी कहा जाता है कि "काशी उनकी शहनाई का स्वर सुनकर ही जागती और सोती थी।"आज शहनाई को विश्वस्तरीय पहचान मिली हुई है और जब-जब भी शहनाई--वादन का जिक्र होता है तो उस्ताद
बिस्मिल्ला खां का स्मरण किया जाता है।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
एक सामान्य से लोक वाद्य-यंत्र को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा है।
बिहार के डूमरांव में जन्मे अमीरूद्दीन का पालन-पोषण संगीत की लय और तान के बीच ही हुआ था।५-६ वर्ष की अवस्था में वे अपने नाना के यहां काशी आ गए।नाना और मामा काशी के पुराने बालाजी मंदिर के नौबतखाने में
शहनाई वादन करते थे। यहां बालक अमीरूद्दीन को अपने चारों ओर शहनाईयां ही दिखाई देती। फिर उसे भी रियाज के लिए बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में भेजा जाने लगा।काशी तो है ही संगीत की नगरी, नौबतखाने की ओर जाते हुए अमीरूद्दीन को
हर घर से संगीत की स्वर-लहरियां सुनाई देती।
जिन्हें सुन-सुनकर उसे संगीत के आरोह-अवरोह का बखूबी ज्ञान हो गया था। धीरे-धीरे
शहनाई और बिस्मिल्ला खां एक-दूसरे के पूरक बन गए।काशी में आयोजित संगीत समारोह उनके बिना अधूरे रहते। बढ़ती ख्याति केसाथ ही शहनाई-वादन में उनकी सिद्धहस्तता बढ़ती चली गई। देश-विदेश में होने वाले शास्त्रीय संगीत समारोह में उनका शहनाई-वादन अनिवार्य सा हो गया।
शहनाई में तो जैसे उनकी जान बसती थी।श्रेष्ठता का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया था।
उन्हें अन्यान्य पुरस्कारों के साथ भारत-रत्न जैसी श्रेष्ठतम उपाधि से विभूषित किया गया।
उनकी जीवनशैली अत्यंत सादगीपूर्ण थी।वे खुदा से रात-दिन अपने लिए स्वर ही मांगा करते।"खुदा कुछ दे न दे,बस शहनाई को स्वर अता कर ।"ऐसा भी कहा जाता है कि "काशी उनकी शहनाई का स्वर सुनकर ही जागती और सोती थी।"आज शहनाई को विश्वस्तरीय पहचान मिली हुई है और जब-जब भी शहनाई--वादन का जिक्र होता है तो उस्ताद
बिस्मिल्ला खां का स्मरण किया जाता है।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
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