बीती ताहि बिसार दे
खोल दो कपाट!
जो बंद कर लिए हैं हमने,
आने दो ताजी हवा!
निकल जाए दुर्गंध,
जिसने बना दिया ,
जिंदगी को जहन्नुम!
अपने ही दायरे में,
सिमट गए हम-तुम।
खोल दो कपाट,
कि मिट जाएं दूरियां।
न रहें मजबूरियां,
मिल जाएं मन,
दूर हो अनबन।
भावनाएं हैं बंदी,
बहने दो उन्हें!
वर्जनाएं जो लगी,
अब टूटने दो उन्हें!
क्यों रहें बंद ये कपाट!
जाति-धर्म-सम्प्रदाय,
के नाम पर,
क्यों न खोलकर,
नफरतों की धूल झाड़ दें?
स्वार्थ को त्याग कर,
परमार्थ निखार दें ।
क्यों न फैलने दें,
अब प्रेम की सुगंध!
क्यों रखें हम खुद को,
पिंजरे में बंद?
क्यों न करूणा के फिर से ,
बादल बरसें!
क्यों हम खुलकर,
हंसने को तरसे ?
बहुत हुआ अब,
अब और न होगा ?
इन किवाड़ों को,
अब खुलना होगा!
बीत गया है जो,
उसको हम बिसार दें!
आने वाले पल को,
हम फिर संवार दें !
जिंदगी के उपवन,
को फिर से बहार दें।
मानव बन कर,
मानवता का प्रसार करें।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
जो बंद कर लिए हैं हमने,
आने दो ताजी हवा!
निकल जाए दुर्गंध,
जिसने बना दिया ,
जिंदगी को जहन्नुम!
अपने ही दायरे में,
सिमट गए हम-तुम।
खोल दो कपाट,
कि मिट जाएं दूरियां।
न रहें मजबूरियां,
मिल जाएं मन,
दूर हो अनबन।
भावनाएं हैं बंदी,
बहने दो उन्हें!
वर्जनाएं जो लगी,
अब टूटने दो उन्हें!
क्यों रहें बंद ये कपाट!
जाति-धर्म-सम्प्रदाय,
के नाम पर,
क्यों न खोलकर,
नफरतों की धूल झाड़ दें?
स्वार्थ को त्याग कर,
परमार्थ निखार दें ।
क्यों न फैलने दें,
अब प्रेम की सुगंध!
क्यों रखें हम खुद को,
पिंजरे में बंद?
क्यों न करूणा के फिर से ,
बादल बरसें!
क्यों हम खुलकर,
हंसने को तरसे ?
बहुत हुआ अब,
अब और न होगा ?
इन किवाड़ों को,
अब खुलना होगा!
बीत गया है जो,
उसको हम बिसार दें!
आने वाले पल को,
हम फिर संवार दें !
जिंदगी के उपवन,
को फिर से बहार दें।
मानव बन कर,
मानवता का प्रसार करें।।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित
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