भूमिपुत्र की व्यथा

कृषक,
भूमिपुत्र,अन्नदाता!
भारतीय अर्थतंत्र का विधाता।

आज स्वयं बना फकीर,
उसकी दशा हृदय देती चीर।

कभी व्यवस्था,कभी प्रकृति,
कभी कर्ज,कभी नियति।

देती नहीं उसका साथ,
महंगाई जैसे कोढ़ में खाज।

अन्नदाता के घर में पड़े अन्न के लाले,
अपनी बिगड़ती हालत कैसे सम्हाले??

बिचौलियों ने किए उसके दिन काले,
छीन लिए इनके मुख के निवाले।

बीज और यूरिया की होती कालाबाजारी,
किसान ने अपनी अब हिम्मत हारी।

खेतों से उसने की है मोहब्बत,
बहाता पसीना करता है मेहनत।

मिट्टी के मोल बिकती हैं फसलें,
बिचौलिए नहीं सही कीमत उगलें।

दो पाटों के बीच पिसता है घुन-सा,
समझ नहीं पाता है दोष किनका?

ऋण माफी की लगाता रहता गुहार,
कागज़ों में पूरी होती ऋण माफी की पुकार।

योजनाएं उन तक पहुंचती नहीं है,
दशा उनकी देखो सुधरती नहीं है।

कैसे दुर्दिन किसानों के आए?
रोज एक किसान फांसी चढ़ जाए।

तड़पता हृदय मन जार-जार रोता,
किसानों का दर्द कहां कोई कहां सुनता!!

झूठे दिलासों से कहीं पेट भरे जाते हैं,
किसानों को नेता झूठे सपने दिखाते हैं।

चिंता में डूबा कृषक चिता चढ़ जाता है,
परिवार उसका  कितनी ठोकरें खाता है।

चुनाव में कृषक बड़ा मुद्दा बन जाता है,
चुनाव के बाद कोई देखने नहीं आता है।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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