तुलसी का मोहभंग....!!

तुलसीदास जपते सदा,
राम का नाम।
मन में भक्ति-भाव का,
होता नहीं अहसास।
काशी रह अध्ययन करें,
मन में पत्नी वियोग,
कैसे रत्ना से मिलें?
कैसे हो संयोग?
विरह वेदना बलवती!!
चल पड़े तुलसीदास,
मेघ बरसता अति भारी,
तुलसी ने ने मानी हार!!
उफन रही यमुना नदी,
न रोक सकी थी राह।
पत्नी से मिलन की,
मन में थी अति चाह।
अर्द्धरात्रि जा पहुंचे चुपके,
वे रत्ना के पास।
रत्ना जडवत रह गई,
ऐसी थी न आस!!
लोक-लाज मर्यादा का,
नाथ किया न ख्याल।
ऐसे भी कोई भला,
आता है ससुराल।
सुंदर रत्नावली,
थी विदुषी नारी।
पति के अंधे मोह पर,
करते सोच-विचार,
बोल उठी वह धीरे से-
हाड़-मांस की देह से,
प्रियतम इतना नेह!!
यदि करते तुम राम से,
इतना ही स्नेह!!
भक्ति होती सफल,
मिलता राम का नेह।।
पत्नी के शब्दों से,
तुलसी का जागा विवेक!
"मोहभंग "हुआ उनका!!
त्याग चले वे गेह।
राम-राम रसना रटे,
आंखों से अश्रु-धार।
राम बिना अब जीवन में,
कुछ भी नहीं स्वीकार।।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित





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