ए जिंदगी

ए ज़िंदगी
बहुत दिया है तूने!
मैं ही न सम्हाल पाई
धरोहर तेरी!
तू कसौटी पर कसती रही,
हर पल मुझे रही परखती,
मैं डरी-सहमी हिरनी-सी
फंसी तेरे जाल में!
दुख के समुद्र में रही डूबती!
नहीं देख पाई,
वो उजाले की किरण!
जिसने भेदा था अमा की रात को!
मैं नहीं समेट पाई उजाला,
मोह की जंजीरों में बंधी,
न भर पाई उड़ान,
इस खुले आसमान में!
न पा सकी वो सौरभ!
जो अंतरतम में,
कस्तूरी-सम थी सदा विद्यमान!
न खोल पाई पट,
न जला ज्ञान-दीप!
बस तुझे बंधन में बांधने की,
करती रही कोशिश ।
न बांध पाई तेरी निरंतरता,
तू मुट्ठी से रेत-सम,
धीरे-धीरे रही सरकती।
मैं करती रही इंतजार,
ए जिंदगी तेरा!
न तुझे जी पाई,
न तेरे साथ चल पाई,
मैं मूढ़मति!
न पा सकी वह लक्ष्य
जो चुना था तूने मेरे लिए।


अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

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