सब कुछ लगता नया-नया








वीणा के तारों में मुखरित

सपनों का संसार नया

जाग उठा आनंद अलौकिक 

जीवन होता निरामया।


अवनी अंबर मध्य तिरोहित

हुए गरल के भाव सभी

रस-गंगा निर्मल हो बहती

पुलकित सारी सृष्टि तभी

कण-कण सुर सप्तक बजती है 

सब कुछ लगता नया-नया।


समता ममता करुणा जागे

भरे ज्ञान का रिक्त कुआँ

माया-मद के टूटे बंधन

पीर उड़े ज्यों उड़े धुआँ

भाव-कमल मन सर में खिलते

नीरसता का भान गया।


स्वाति बूँद चातक ने पाई

युगों-युगों की प्यास बुझी

घोर यामिनी मध्य चमकती

आशा की नव किरण सुझी

मैं-पर के सब भाव मिटे अब

मन मंदिर में बची दया।।


अभिलाषा चौहान










टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (०८-०८ -२०२२ ) को 'इतना सितम अच्छा नहीं अपने सरूर पे'( चर्चा अंक -४५१५) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. ऐसी सुंदर काव्य-रचना करने वाली लेखनी के समक्ष शीश नत हो जाता है। इससे अधिक क्या कहूँ ?

    जवाब देंहटाएं
  3. अनुभूतियां जब उच्चतम अवस्था में होती हैं तब ऐसे गीत निकलते हैं । बहुत खूब ।

    जवाब देंहटाएं

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