कह दूँ जो हो बात सही
उमड़ पड़ा भावों का सागर
प्राणों में रस धार बही
करूँ कल्पना कविता रच दूँ
कह दूँ जो हो बात सही।।
पग में बंधन बेड़ी बनकर
रोक रहें हैं पथ मेरा
नीलगगन तब मुझे पुकारे
तोड़ चलो अब ये घेरा
पूरी करो कल्पना अपनी
मन की मन में रखो नहीं
करूँ कल्पना कविता रच दूँ
कह दूँ जो हो बात सही।।
उड़ता फिरता मन का पंछी
चुनता शब्दों का दाना
बुद्धि नीड़ में करे बसेरा
बुनती है ताना-बाना
लिख-लिख पाती फाड़ी कितनी
मंथन से निकला न मही
करूँ कल्पना कविता रच दूँ
कह दूँ जो हो बात सही।।
शब्द-शब्द मोती से चमके
अर्थ प्राण जब साथ रहे
छंदों के बंधन में बंधकर
कविता कैसे बात कहे
सोच रही बैठी मैं कबसे
सच्चा होगा स्वप्न यही
करूँ कल्पना कविता रच दूँ
कह दूँ जो हो बात सही।।
अभिलाषा चौहान
वाह अभिलाषा जी ! बहुत सुन्दर और भावपूर्ण गीत !
जवाब देंहटाएंअत्यंत भाव प्रवण रचना।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत ही भावपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 12 अगस्त 2022 को 'जब भी विपदा आन पड़ी, तुम रक्षक बन आए' (चर्चा अंक 4519) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंछंदों के बंधन में बंधकर भी आपने अपनी सही बात कह ही डाली अभिलाषा जी।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंभावपूर्ण और सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंवाह अभिलाषा जी ,सुन्दर भावभरी रचना!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी सादर
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