लेखनी के मार्ग छूटे
हो रहा मन आज विचलित
देख सुख के स्वप्न झूठे
वेदना मन में हुलसती
भावना के तार टूटे।
उलझनों के जाल कैसे
बेड़ियों से बन गए हैं
स्वार्थ में सब नेह धागे
आज कैसे जल गए हैं
नित विषय कितने भटकते
लेखनी के मार्ग छूटे।
घेरता मन को अँधेरा
आस-दीपक बुझ रहा है
लेखनी अब हारती सी
धैर्य उसका झर रहा है
मौत मानवता की हुई
और सबके भाग फूटे।
खो गई सारी दिशाएँ
धुंध कैसी छा रही है
राह सारी छूटती अब
पीर हिय को खा रही है।
नींद नयनों की उड़ी है
चैन सबका कौन लूटे।
अभिलाषा चौहान
मौत मानवता की हुई
जवाब देंहटाएंऔर सबके भाग फूटे।......बिल्कुल सही। बहुत सुंदर।
सहृदय आभार आदरणीय सादर
हटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
जवाब देंहटाएंमन की विचलित अवस्था का सटीक वर्णन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंभावपूर्ण चित्रण
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया सादर
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