ग़रीब कौन ??

गरीबी है खटमल ,
खून पीती गरीब का।
घुन की तरह करती,
खोखला तन-मन।
दफन होती उम्मीदों,
और इच्छाओं के बीच,
सर उठा कर रूआब से
रहती खड़ी गरीबी।
दिखाती अंगूठा...,
सारी व्यवस्थाओं को।
सुरसा के मुख सी बढ़ती,
गरीबी लीलती जिंदगियां।
या अपने तीक्ष्ण...
नुकीले पंजों में जकड़ती,
जाती गरीब को!!
गरीब और होता गरीब ?
मरता बेमौत,
जीतता जंग...?
हर रोज अपने जीवन की।
अपने संस्कारों के साथ,
बचाता परंपराएं!!
है जो अमीरी के नाम पर,
उसके पास।
और मारता तमाचा उन,
सभ्य इंसानों के मुंह पर।
जो कहलाते अमीर,
होते दिल से गरीब...!
ढोते इंसानियत की लाश!!
पहने तमगा..
समाज के उत्थान का!
करते बड़ी-बड़ी बातें,
बनाते हवाई किले।
बेखबर उन गरीबों से,
जिनके घर में नहीं चार दाने।
खाली लुढ़कते बर्तन
खाली शून्य आंखें
करती इंतजार
कि कभी दिन सुधरेंगे।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित, मौलिक



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