सब धूल ही तो है
घर में यहाँ-वहाँ बार-बार
ज़मती धूल
खींचती है अपनी ओर
जिसके पीछे छिपा सच
पल में खोल देता मेरी आँखें
सब धूल ही तो है
ये चमकती दुनिया
मात्र भ्रम है
हाँ ये चमक जो स्वर्ण मृग है
जिसने भ्रमित किया
वैदेही को
परिणाम देखा सबने
धूल में मिला अहंकार
धूल में खिला फूल
न बन सका शोभा
राजमहल की
असीमित अनंत दुख
समेटे ये धूल
पल में बनाती है इतिहास
अनेक उनींदे स्वप्न
देखे दम तोड़ते
जब हमारे भाग्य विधाता बन
चंद मुट्ठी भर लोग
आँखों में झोंक देते धूल
हमने ही की भूल
ईश्वर के उपहार
बाग-बगीचे वन सबको
मिलाया धूल में
धूल ही धूल
जो सनातन शाश्वत सत्य
अंतरिक्ष भी असहाय सा
इस धूल के आगे
खाँसते खखारते रुग्ण शरीर
चंद साँसों के लिए
लड़ते इस धूल से
दिन-दिन पाँव पसारती
ये धूल
लील जाएगी पृथ्वी को
जिसको हमने दिया है बसेरा।
हम ढूँढते रहेंगे
ग्रहों पर जीवन....??
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22-11-2021) को चर्चा मंच "म्हारी लाडेसर" (चर्चा अंक4256) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंचिंतनपूर्ण सराहनीय सृजन ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंअभिलाषा जी, आँखों में धूल झोंक कर हमको ठगने वाले और हम पर कुशासन करने वाले कपटी महात्माओं का उल्लेख भी तो कीजिए.
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 आपकी बात पर अमल अवश्य करूँगी,सादर
हटाएंबहुत ही विचारणीय एवं चिन्तनपरक...
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन।
वाह!!!
सहृदय आभार सखी, सादर
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत विचारणीय व उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार मनीषा जी,सादर
हटाएंविचारोत्तेजक सृजन..
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंसहृदय आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन सखी।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत उम्दा आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
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