प्रीत बनी है कारा
"मीरा की व्यथा या हर वियोगिनी की पीड़ा"
हृदय-भाव अब क्रंदन करते
प्रीत बनी अब कारा
तटबंधों को तोड़ चुकी है
आँसू की ये धारा।
पाषाणी प्रतिमा बन बैठे
व्यथा न समझी मेरी
नैनों के पट अब तो खोलो
हो जाएगी देरी
तड़प रही ज्यों जल बिन मछली
कैसे पाऊँ किनारा।।
सागर की लहरों सा उमड़े
ज्वार प्रेम का साजन
बनी चकोरी तुम को ताकूँ
निठुर बने मनभावन
तेरी जोगन बन बैठी हूँ
तुम पे हिय है हारा।।
प्यासी हूँ मैं जनम-जनम की
नित बरसे है सावन
अंगारों पर लोट रही हूँ
हूँ मैं बड़ी अभागन
तेरी मूरत जीवन मेरा
सौंप दिया निज सारा।।
अभिलाषा चौहान
एक विरहणी की वेदना को सटीक शब्द दिए हैं ।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंविरह वेदना को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है आपने,अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (22-05-2021 ) को 'कोई रोटियों से खेलने चला है' (चर्चा अंक 4073) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना ।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंप्यासी हूँ मैं जनम-जनम की
नित बरसे है सावन
अंगारों पर लोट रही हूँ
हूँ मैं बड़ी अभागन
तेरी मूरत जीवन मेरा
सौंप दिया निज सारा।।
सुन्दर भावों का सृजन ।