" बूढ़ा दरख्त "

वर्तमान परिवेश पर अपने विचार साझा कर रही हूं.....
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जाने कितने वर्षों से वह बरगद का वृक्ष उस चौपड पर खड़ा अतीत की न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी था , न जाने कितने जीव-जंतुओं, पथिकों की शरणस्थली था। आज उदासी से घिरा था,वर्तमान परिवेश में उसे अपने ऊपर आने वाले संकट का एहसास था, लोगों की बदली हुई मानसिकता ने उसे हिला दिया था ! सोच रहा था, क्या समय आया है जिससे स्वतंत्रता व ऐशोआराम में बाधा पडे, उसे रास्ते से हटा दो, चाहे वे हरे-भरे वृक्ष हों या फिर बूढ़े मां-बाप !
देखती हूं तो सोचती हूं क्या वास्तव में हम राम-कृष्ण व श्रवण के देश में रहते हैं ? क्या यही हमारे नैतिक मूल्य हैं ? ये कैसे संस्कार हैं, जो वृद्ध माता-पिता को दर - दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं या वृद्धाश्रम जाने को मजबूर कर देते हैं। कहां गई हमारी मानवता जो ईश्वर तुल्य माता-पिता पर हाथ उठाने में भी किसी को शर्म नहीं आती! माना वैचारिक मतभेद बढ़ रहे हैं संबंधों में तल्खियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या यही समाधान है?

आज जब कहीं ऐसा होते देखती हूं तो मन खून के आंसू रोता है। ये दरख्त या बूढे मां-बाप हमें सदा छांव देते आए हैं, सबके नसीब में यह सुख नहीं होता, छांव का महत्व रेगिस्तान में भटकने वालों से पूछो , किसी अनाथ से पूछो ।

इतने स्वार्थी न बनो क्योंकि इतिहास अपनेआप को दोहराता है, हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं इसलिए दरख्तों को आंगन में रहने दो। इनकी छांव बड़ी अनमोल है ।
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टिप्पणियाँ

  1. सच है आपकी बात ...
    न सिर्फ़ छांव जीवन प्रासाद स्वच्छ वायु और जीवन देते
    हैं ये पेड़ इंसान को ...

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  2. मैं वृक्ष के साथ माता-पिता के साथ होने वाले अन्याय से भी व्यथित हूं। धन्यवाद

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  3. बस यही समझ नहीं आता के
    ज़िन्दगी से इतनी नफरत क्यों

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  4. सत्य कहा यशोदा जी, पता नहीं इस क्षणभंगुर जीवन
    केअनमोल पलों को लोग संकीर्ण विचारों के कारण क्यों व्यर्थ गंवा देते हैं ।

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