इंतजार करो

एक आम गृहिणी की पीड़ा 


इंतजार करो

आएगा ऐसा दिन

होंगी ख्वाहिशें पूरी

अभी जिम्मेदारियां हैं

वे हैं जरुरी..

गृहस्थी की गाड़ी चलानी है

रिश्तेदारी भी निभानी है

कुछ कर्ज चुकाने है

बच्चे भी तो पढ़ाने है 

अभी तो बहुत समय है

चलेंगे कभी घूमने....

माता-पिता बुजुर्ग हैं

कैसे छोड़ें अकेला??

अभी तो समय है....

अपनी छत हो जाए

बच्चों की शादी हो जाए

फिर समय ही समय है...

मैं मसालों में लिपटी

तुम हिसाब-किताब में उलझे

चलते रहे यूँ ही

निभाते अपना धर्म .....

तुम कहाँ जा रही हो

कर देंगे पूरी इच्छा

रिटायर हो जाएँ

तो समय ही समय है....

करती रही इंतजार

आएगा समय....

लो आ गया समय

अस्पताल में घूमने का

अभी सेहत है जरूरी

फिर करेंगे ख्वाहिशें पूरी...

बोले थे तुम

मैंने नहीं सुना

क्योंकि

अब नहीं है मुझे इंतज़ार

ना ही बाकी है कोई इच्छा

मुझे पता है

मेरी ही इच्छाओं को घोंटना

सबसे सरल था

तुम्हारे लिए

सबके लिए वक्त था

पर मेरे लिए बस इंतजार था

दो पल अकेले बिताने थे

तुम्हें अपने जज्बात सुनाने थे

अब तो उम्र भी न रही

कुछ मर गया है भीतर

बस ढो रही हूं

अपनी मृत इच्छाओं का बोझ

जिनका अंतिम संस्कार

करना है मुझे

जीने की चाह भी

बोझ के समान हावी है

आखिर मेरे लिए कुछ तो किया होता 

कभी अपने मन से 

एक फूलों का गजरा ही दिया होता

मुझे माँगना पड़ा तुमसे सदा

और मैंने बिन माँगे ही

तुम्हारे मन को पढ़ा

काश तुमने एक पल इस जिंदगी में

मेरे नाम किया होता

तो मैंने भी जिंदगी को भरपूर 

जिया होता

गृहस्थी की गाड़ी तो बढ़िया चली

कर्तव्यों को लादे

प्रेम की कली कभी फूल न बनी

साथ रहकर भी

रहे नदी के दो किनारे

तुम संपूर्ण थे ..

मैं थी तुम्हारे सहारे !!


अभिलाषा चौहान 








टिप्पणियाँ

  1. आपकी मर्मस्पर्शी कविता में केवल गृहस्थिन नारी की पीड़ा है अभिलाषा जी। सम्भवतःआपको विदित नहीं कि अनेक गृहस्थ एवं कर्तव्य-भार से दबे पुरुष भी ऐसी पीड़ा को सहते हैं। आपकी कविता से ऐसा झलकता है कि विवाहित पुरुष अपनी अर्द्धांगिनी की अतृप्त इच्छाओं तथा अंतर्मन की घुटन की उपेक्षा करते रहते हैं परन्तु सभी ऐसे नहीं होते तथा ऐसी स्थिति किसी पति के निमित्त भी हो सकती है। हालात की मजबूरियों को उनसे गुज़रने वाला ही जान सकता (या जान सकती) है। ज़िन्दगी हमारी सोचों से बहुत बड़ी है, और हमारे शिकवों से भी। लेकिन मैं आपकी कविता के मर्म से सहमत हूँ। जब मन ही मर चुका हो, तब इच्छाओं का पूरा होना या न होना बेमानी हो जाता है। का वर्षा जब कृषि सुखाने। जहाँ तक जीवन भर के लिए सामाजिक बंधन में बंधे नर-नारियों का प्रश्न है तो दोनों के लिए ही यही उचित है कि दोनों ही के लिए एक हो चुके जीवन-प्रवाह को समझें तथा उससे भी पहले एक-दूसरे को समझें। और शिकवे-शिकायत भी करें नियमित रूप से - इकदूजे से। शिकवों को मन में न रखकर कुछ कहें, कुछ सुनें। इससे ज़िन्दगी और रिश्तों की सारी न सही, कुछ गुत्थियां तो सुलझेंगी। आपकी कविता बहुत अच्छी है, इसमें कोई संदेह नहीं।

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  2. जीवन ऐसा ही है स्त्री हो या पुरूष एक आयु के उपरांत सबकी यही पीड़ा है।

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  3. चिंतनपूर्ण विषय है ये अभिलाषा जी ।
    इस मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति रचना के लो बधाई।

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  4. अभिलाषा जी, घर-घर की कहानी को उजागर कर दिया आपने !
    वैसे तो घर-गृहस्थी के दायित्व निभाने में पति-पत्नी, दोनों की भूमिका होती है लेकिन इसमें पत्नी की भूमिका में त्याग और बलिदान का अंश कुछ अधिक ही होता है.
    फ़र्ज़ अदायगी में पति अक्सर आपसी प्यार को भूल जाता है लेकिन पत्नी उसे कभी नहीं भूलती और उसकी चाहत में जीवन भर तड़पती रहती है.
    हर गृहिणी के अंतर्मन की व्यथा को व्यक्त करने वाली इस मार्मिक कविता की रचना के लिए आपको बधाई !

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