और कैसे रोक पाऊँ
चिर प्रतिक्षित प्राण को अब
और कैसे रोक पाऊँ
है विह्वल जो प्राण मेरा
प्रीत धुन क्यूं गुनगुनाऊं!!
दूर नभ पर चाँद चमके,चाँदनी मुझको जलाती।
आस का पंछी उड़ा ले,अश्रु भीगी देख पाती।
कौन हो तुम हो कहाँ पर,ये नयन जो ढूँढ पाते।
रूप अपना तुम छिपाए,क्यों मुझे यूँ तुम रुलाते।
खेलते हो खेल नव नित
मैं तुम्हें कैसे मनाऊँ
बुझ रहे अब आस दीपक
तेल बिन कैसे जलाऊँ!!
व्यर्थ से संसार में अब,छा रहा गहरा अँधेरा।
बंधनों से मुक्त होकर,तोड़ दूँ ये मोह घेरा।
लौ प्रतिपल क्षीण होती,डूबती नैया किनारे।
खो गई पतवार मेरी,पंथ कोई अब सँवारे।
टूटता विश्वास पल -पल
काश इसको जोड़ पाऊँ
स्वप्न धूमिल हो गए सब
चैन भी अब तो गवाँऊ।
पात तृण तरुवर सुमन ये,झूमते और मुस्कुराते।
खग विहग भी नीड़ अपने,देख कैसे चहचहाते।
सूर्य किरणें भी धरा को,आभ स्वर्णिम दे रहीं हैं।
और मलयानिल सुगंधित,देख चहुं दिस नित बही है।
मूढ़ मति मैं देखती सब,
वेदना में डूब जाऊँ
श्रेष्ठ समझूँ स्वयं को मैं
शीश किसको मैं नवाऊं??
क्षीण सा अस्तित्व मेरा,चाहता है लक्ष्य पाना।
लक्ष्य का न भान मुझको,ना पता किस ओर जाना।
प्यास बुझती ही नहीं है,सामने है गंगधारा
आंख पर पर्दा पड़ा है,सत्य को नित है नकारा।
हूँ भ्रमित सी जाल उलझी
पीर किसको अब सुनाऊँ
पाप की गठरी बनी हूँ
मैल अब किससे धुलाऊँ।
आज अवगुंठन तुम्हारा,उर यही बस चाहता है।
ले चलो बस साथ अपने, मुक्ति ही बस रास्ता है।
है विकल उर टेर सुन अब,देख ले इक बार आकर।
तू सकल सृष्टि का स्वामी,हम तो तेरे बस हैं चाकर।
दे दर्श अब दीप्त कर दे,
दीप बन कर झिलमिलाऊँ
विश्व की हर वेदना अब,
ताप थोड़ा, तम मिटाऊँ।
अभिलाषा चौहान
क्षीण सा अस्तित्व मेरा,चाहता है लक्ष्य पाना।
जवाब देंहटाएंलक्ष्य का न भान मुझको,ना पता किस ओर जाना।
प्यास बुझती ही नहीं है,सामने है गंगधारा
आंख पर पर्दा पड़ा है,सत्य को नित है नकारा।
बहुत सटीक एवं सार्थक
हृदयस्पर्शी सृजन ।
सहृदय आभार सखी सादर
हटाएंलाज़बाब सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 20 अक्टूबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंश्रेष्ठ समझूँ स्वयं को मैं
जवाब देंहटाएंशीश किसको मैं नवाऊं??
जब तक वह दर नहीं मिलता जहाँ शीश नवाना है तब तक मन सवालों का सृजन किए जाता है
अति सुन्दर रचना , गुनगुनाते रहने का दिल करे ,
जवाब देंहटाएंसादर
दिल को छूती बहुत सुंदर रचना, अभिलाषा दी।
जवाब देंहटाएंआत्म-भर्त्सना के साथ ईश्वर से अपना उद्धार किए जाने की बहुत सुन्दर प्रार्थना !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंलाजबाव सृजन
जवाब देंहटाएंआज अवगुंठन तुम्हारा,उर यही बस चाहता है।
जवाब देंहटाएंले चलो बस साथ अपने, मुक्ति ही बस रास्ता है।
है विकल उर टेर सुन अब,देख ले इक बार आकर।
तू सकल सृष्टि का स्वामी,हम तो तेरे बस हैं चाकर।!
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बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय अभिलाषा जी।ईश्वर की अत्यंत विनम्र अभ्यर्थना,वो भी सधे और कुशल अंदाज में।आध्यात्मिक सृजन के लिए हार्दिक बधाई 🙏🌹🌹
बहुत सुंदर सखी! गूढ़ भाव गूढ़ दर्शन सुंदर शब्दावली बहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण आध्यात्मिकता के साथ।