बात रही इतनी







शूल चुभोकर पूछ रहे 

खुशी मिली कितनी

पैरों के नीचे भी अब

धरा कहाँ अपनी।


खटमल से चिपके हैं

रुधिर पिएं तन का

और मुखोटा पहने वे

सब भोलेपन का

भूख लोभ की बढ़ती

चाह बढ़ी जितनी


जब कुचल रहे पैरों में

दीनों के सपने में 

आग लगाकर सुख में

बनते हैं अपने 

नदी नाव से पूछ रही 

लहरें हैं कितनी...


दंभ बोलता सिर चढ़कर

बाहुबल का जोर 

कानों में कब पड़ता है 

अन्याय का शोर 

मौसम से सुर बदले हैं

बात रही इतनी...


अभिलाषा चौहान 


(चित्र गूगल से साभार)






टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 18 अक्तूबर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, अभिलाषा दी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-10-22} को "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:"(चर्चा अंक-4585) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  4. नदी नाव से पूछ रही लहरें हैं कितनी ... गहन भाव सृजन . अभिलाषा जी

    जवाब देंहटाएं
  5. 'पैरों के नीचे भी अब, धरा कहाँ अपनी'... क्या खूब कह गई हैं आप! बहुत ही खूबसूरत रचना!

    जवाब देंहटाएं
  6. बात रही इतनी की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि क्या कहा जाए । बस बात रही इतनी । इस बात पर दाद तो बनती है । : )

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवन में ना कुचलने वालों की कमी है ना शूल चुभोने वालों की।सितम की इन्तहा कि किसी को किसी पीडित की कोई परवाह नहीं।विकल मन की मर्मांतक अभिव्यक्ति प्रिय अभिलाषा जी।बहुत ही अच्छी शैली में लिखा है आपने।सस्नेह शुभकामना 🙏🌹

    जवाब देंहटाएं

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