कब रघुनंदन आ पीर हरें
व्यथित वियोगिनी हैं जानकी
कब रघुनंदन आ पीर हरें
हनुमत लेकर गए निशानी
यह सोच-सोच मन धीर धरें।
घड़ियाँ लगती सदियों जैसी
धरती अंबर क्यों हुए विलग
नदिया के दो बने किनारे
ये मिलन अधूरा जाने जग
अम्बुधि की लहरें उद्वेलित
उमड़-घुमड़ देखो नैन झरें
हनुमत लेकर गए निशानी
यह सोच-सोच मन धीर धरें।
आस मिलन की जाग रही है
जब पवन सुनाती संदेशा
सूर्य-चंद्र भी दिखें प्रफुल्लित
फिर कब आएगा पल ऐसा
एक मिलन के साक्षी बनकर
अखिल भुवन के संत्रास तरें
हनुमत लेकर गए निशानी
यह सोच-सोच मन धीर दरें।
वारिध हठी बँधे कब बंधन
सब पत्थर तल में डूब चले
राम-नाम की महिमा अतुलित
जब जाना उसने हाथ मले
बाँध उर्मियाँ फिर सागर की
नलनील सेतु निर्माण करें।
हनुमत लेकर गए निशानी
यह सोच-सोच मन धीर धरें।
अभिलाषा चौहान
अति सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंमनभावन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सादर
हटाएंअति सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
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