टाले-टाले कहीं टली





अनहोनी होकर रहती है

टाले-टाले कहीं टली

आशंकाएँ जाल बिछातीं

खुशियाँ जातीं सदा छली।


जीवन सुख-दुख के पाटों में

पिसता है घुन के जैसा

कठपुतली सा नाच नचाता

काल बना यम है ऐसा

पटरी पर आते-आते ही

गाड़ी फिर से उतर चली

आशंकाएँ जाल बिछातीं

खुशियाँ जातीं सदा छली।।


तप्त रेत सा लगता जीवन

संकट नित झुलसाते हैं

मृगमरीचिका में उलझे कब

सुधा ढूँढ कर लाते हैं

गर्म हवा फिर तोड़ हौसले

निर्मम सी हो आज चली

आशंकाएँ जाल बिछातीं

खुशियाँ जातीं सदा छली।।


शीतल ठंडी छाँव मिले कब

सपना मन में पलता है

आग उगलता दिनकर देखो

अँधकार मन छलता है

हार गया जो रणभूमि में

भटके नित ही गली-गली

आशंकाएँ जाल बिछातीं

खुशियाँ जातीं सदा छली।।


अभिलाषा चौहान 


टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुन्दर रचना

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(३१-१०-२०२२ ) को 'मुझे नहीं बनना आदमी'(चर्चा अंक-४५९७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. क्षणभंगुर जीवन की क्षणिक खुशियाँ ।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी कविता तो निस्सन्देह प्रशंसनीय है अभिलाषा जी। यदि आप स्थायी की पंक्तियों में 'बिछाती' के स्थान पर 'बिछातीं' एवं 'जाती' के स्थान पर 'जातीं' लिखतीं तो सम्भवतः यह अभिव्यक्ति व्याकरणीय दृष्टि से शुद्ध होती।

    जवाब देंहटाएं
  5. त्रुटियों पर ध्यानाकर्षण के लिए सहृदय आभार आदरणीय सादर आपकी प्रतिक्रिया पाकर रचना सार्थक हुई

    जवाब देंहटाएं

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