अब न मन हर्षाए सावन
आया सावन,
घिर आए बादल।
बिन बरसे,
उड़ जाए बादल।
ऐसे क्यों,
तरसाए बादल।
अब न चले वो,
पवन पुरवाई।
जो लेके संदेशा,
नैहर से आई।
न वो झूले,
न वो सखियां
उजड़ गई है
अब वो बगिया।
सूना-सूना,
लगता है सावन।
न वो खुशियां,
न वो आंगन।
कब आए,
कब चला जाए सावन!
अब मन को,
न भाए सावन।
छूट गई है,
अब वो कलाई।
दूर पहुंच से,
अब वो भाई।
बिन भैया के,
कैसा सावन!
अब न मन,
हर्षाए सावन।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
घिर आए बादल।
बिन बरसे,
उड़ जाए बादल।
ऐसे क्यों,
तरसाए बादल।
अब न चले वो,
पवन पुरवाई।
जो लेके संदेशा,
नैहर से आई।
न वो झूले,
न वो सखियां
उजड़ गई है
अब वो बगिया।
सूना-सूना,
लगता है सावन।
न वो खुशियां,
न वो आंगन।
कब आए,
कब चला जाए सावन!
अब मन को,
न भाए सावन।
छूट गई है,
अब वो कलाई।
दूर पहुंच से,
अब वो भाई।
बिन भैया के,
कैसा सावन!
अब न मन,
हर्षाए सावन।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13 -07-2019) को "बहते चिनाब " (चर्चा अंक- 3395) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सहृदय आभार सखी,सादर
हटाएंबहुत मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार रवीन्द्र जी,सादर
हटाएंबेहद हृदयस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार
हटाएंबहुत सुंदर रचना प्रिय सखी ।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंbeautiful...
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी
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