जिंदगी सिगरेट- सी

धीमे-धीमे सुलगती,
जिंदगी सिगरेट-सी।
तनाव से जल रही,
हो रही धुआं-धुआं।
जिंदगी सिगरेट-सी,
दुख की लगी तीली !
भभक कर जल उठी,
घुलने लगा जहर फिर!
सांस-सांस घुट उठी,
जिंदगी सिगरेट- सी ।
रोग दोस्त बन गए,
फिज़ा में जहर मिल गए।
ग़म ने जब जकड़ लिया,
खाट को पकड़ लिया।
मति भ्रष्ट हो चली,
जिंदगी सिगरेट- सी।
धीमे-धीमे जल उठी,
फूंक में उड़े न ग़म!
खुशियों का निकला दम!
क्लेश-कलह मच गया,
सबकुछ ही बिखर गया।
बात हाथ से निकल गई,
जिंदगी सिगरेट सी,
अंततः फिसल गई।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक

टिप्पणियाँ

  1. वाह!!सखी ,बहुत खूब !!
    धीमे-धीमे सुलगती
    जिंदगी सिगरेट सी ....

    जवाब देंहटाएं
  2. अभिलाषा जी आपने अपने रचना के माध्यम से सिगरेट के धुएं में पल -पल नरक होती जिंदगी पर करारा व्यंग किया है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!!!
    जिन्दगी सिगरेट सी दुख और गमों की आग में झुलसती...

    जवाब देंहटाएं

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