भूलती पहचान अपनी



भूलती पहचान अपनी

देखती हूं स्वप्न कोई

बोझ बनते इन पलों से

आँख मूँदी और रोई


साथ छूटा वक्त रूठा

कौन बनता है सहारा

प्रेम फीका क्रोध तीखा

टूटता सुख का सितारा

पृष्ठ की उर्वर मृदा पर

अक्षरों के बीज बोई


ज्यों बरसते मेघ प्यासे

त्यों बढ़े मन की उदासी

मीन तड़पे बीच नदिया

नाचती हूँ मैं धरा सी

आग जलती है हृदय में

नींद नयनों की डुबोई


डूबती नैया भँवर में

दूर से देखे किनारा

चाँद भी जलता हुआ सा

चाँदनी से हुआ न्यारा

मीत सच्चे कब मिले हैं

याद करती और खोई।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर।
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकानाएँ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर
      आपको भी शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐💐💐

      हटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१९-१०-२०२०) को 'माता की वन्दना' (चर्चा अंक-३८५९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही लाजवाब भावपूर्ण सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है और मुझे यह बहुत पसंद है

    जवाब देंहटाएं

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