है कठिन ये काल
है कठिन ये काल लेकिन
प्राण को रख अब सजग सा
आग लगती जब हृदय में
देख बनकर कुछ अलग सा
जीत निश्चित ही मिलेगी
प्रश्न ये तनकर खड़ा है
हार कर यूँ बैठ जाना
प्रश्न ये उससे बड़ा है
उलझनों के दौर सुलझे
कर्म कर क्यों है विलग सा
खेलता है भाग्य नित ही
खेल कितने ही निराले
वह मनुज इतिहास लिखदे
जो नहीं है शस्त्र डाले
राह टेढ़ी हो मगर फिर
चल पड़े वो है खडग सा
धीर धारण कर धरा से
और साहस ले पवन से
सूर्य सा हो ओज तन में
और करुणा ले गगन से
मन द्रवित गिरिराज कहता
बह निकल या बन अडिग सा।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 5 अक्टूबर 2020) को 'हवा बहे तो महक साथ चले' (चर्चा अंक - 3845) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सहृदय आभार आदरणीय 🙏 🙏 सादर
हटाएंउत्कृष्ट सृजन सखी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🌹🌹 सादर
हटाएंसहृदय आभार
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