कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा









कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा,

भानुमती ने कुनबा जोड़ा।

जाति-धर्म को ढाल बनाकर,

दूजे माथ ठीकरा फोड़ा ।


चैन नहीं अब मुर्दे पावें,

उनके गीत सभी नित गावें।

न्याय बना कठपुतली इनकी,

मन चाहा ये नाच नचावें।


ऊंचे देखो महल-चौबारे,

इनके ही हों वारे न्यारे।

और विकास यहीं दिखता है,

झुग्गी झोपड़ निर्धन हारे।


धक्के खाएं फिरते मारे,

सपने झूठे मन को हारे।

इनकी पीड़ा सदियों पुरानी,

इनके किसने पैर पखारे।


और सुदामा हार चला अब,

कृष्ण कहां जो भार सहें सब।

रावण-कंस-जरासंध जीतें,

कौन किसी का कौन सुने कब।


चंद्रयान चंदा पर जाए,

भूख गरीब की रोज रुलाए।

एड़ी घिस-घिस मरे बेचारा,

भारत नंबर वन कहलाए।


दोहरी नीति दोगली बातें,

निर्बल पर करते सब घातें।

शक्ति समता दासी इनकी,

बिन चरखे ये खादी कातें।


चाहे जिसको चुन कर लाओ,

मन की बात अधूरी पाओ।

कुर्सी पाकर रंगत बदलें,

अपनी पीठ छुरा घुपवाओ।


आरक्षण को बना खिलौना,

लेकर मुफ्त रेवड़ी दौना।

सब शिकार पर निकले देखो,

बातें इनकी जादू-टोना ।


मानवता छुप-छुप रोती है ,

जाति विष कितना बोती है ।

राम-रहीम बसे नारों में ,

महंगाई बस खुश होती है ।


राम भरोसे सबकी गाड़ी,

किसने किसकी पीड़ा ताड़ी।

अंधी दौड़ चलो सब दौड़ो,

कौन खिलाड़ी कौन अनाड़ी।


अभिलाषा चौहान 















टिप्पणियाँ

  1. अभिलाषा जी, कबीर बहुत पहले कह गए हैं -
    'सांच कहो तो मारन धावे'
    फिर भी आप चेती नहीं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रणाम आदरणीय

      आपकी शिष्या हूं तो कुछ तो प्रभाव आएगा ना सर,आपको देखकर हम भी थोड़ा बहुत कुछ कह लेते हैं।सादर आभार आपका

      हटाएं
  2. राम भरोसे सबकी गाङी, किसने किसकी पीछा तारीख ....सुन्दर दोहे ...

    जवाब देंहटाएं

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