ये कैसे शहर..??



शहर दर शहर,
कुकुरमुत्ते से-
उगते कंक्रीट के जंगल!
वाहनों की रेलमपेल...,
लोगों का हुजूम,
घुटता पर्यावरण का दम।
शहरी संस्कृति...!
व्यक्ति से अपरिचित व्यक्ति,
अपने में खोया.….!
करता जीवन के लिए संघर्ष !
शहर ...!
बेहिसाब चकाचौंध,
आपा-धापी,
लंबी कतारें...!
भीड़ संस्कृति इसकी पहचान !
दिखावे की दुनिया,
नीरस जीवन।
ये शहर ...
पत्थर का,
पत्थर के हैं लोग
दिल भी पत्थर...!
जिसके कान बहरे..!
जो नहीं देख पाता...!
निरीह की पीड़ा..!
बेबस अबला की पुकार..!
जहां कुचलते अरमान,
टूटते सपने,
कीड़े-मकोड़ों सम...,
जीवन जीने को मजबूर
आदमी..!
ये शहर..!
चालाकी,ठगी..!
बदनीयती से घिरा..!
जहां मुखौटे बनाते हैं
अपना अस्तित्व..!
जहां इंसानियत
खोजती अपना अस्तित्व!!

अभिलाषा चौहान

टिप्पणियाँ

  1. सही लिखा है शहरी आधुनिकरण के इस युग में इंसानियत तो गुम ही हो गई है ।

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  2. आधुनिकीकरण की दुनिया है यहां इंसानियत शोर में दब कर आह बह्र रहीं है! बहुत सुन्दर लिखा है!

    जवाब देंहटाएं

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