उजड़ते आशियाने

जीविका की तलाश में,
दर-बदर वे भटकते।
टीन-टप्पर जोड़कर,
बनाते अपने आशियाने।
वक्त की मार को,
हंसते हुए झेलते।
आशियाने में अपने,
छोटे-छोटे सपने जोड़ते।
चाह नहीं अट्टालिका की,
या बड़े-बड़े महलों की।
छोटी-छोटी बातों में ही,
जीवन की खुशियां ढूंढते।
जो भी है पास उनके,
उसी का सुख हैं भोगते।
नियति को स्वीकार कर,
हंसकर जीवन जीते।
व्यवस्था और बाहुबली,
जब उनके सपने रोंदते।
आंखों से छलकते आंसू,
आशियाने जब उजड़ते।
पाई-पाई जोड़ कर,
दुनिया थी जो बसाई।
निष्ठुरों ने अतिक्रमण,
के नाम पर थी मिटाई।
कुचल गए सपने सारे,
उजड़ते इन आशियानों में।
रह गए बाकी निशां बस,
बाकी बचे जो अरमानों में।
अपने ही देश में,
बन जाते बेगाने से।
एक फकत आशियाने
की तलाश में घूमते।

अभिलाषा चौहान






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