ये नीला अनंत विस्तार

ये नीला अनंत विस्तार,
ये रहस्यमयी संसार।
कौन रहता है वहां,
उस नील नभ के पार।
सुना है एक लोक,
गगन के उस पार है।
नहीं कोई दुख वहां,
सुखद वह संसार है।
ये ज्योतिर्मय सूर्य नभ में,
उस लोक का पता बता रहा।
ये गगन की नीलिमा है या,
पट किसी का फहरा रहा।
लो रजनी ने डाला डेरा ,
खो गई अब नीलिमा।
पहन कर तारों का हार,
शोभती है ये कालिमा।
वो झांकता है चंद्र या,
चंद्र मुख कोई झांकता।
या गगन ही चंद्र रूप में,
रहा धरा को ताकता।
मिलकर भी मिलते नहीं,
धरती-गगन साथ में।
दूर क्षितिज पर लग रहा,
डाले हाथों में हाथ हैं।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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