सत्य का बोध

जलधि-तरंग..!
अशांत-अस्थिर..!
पाने को व्याकुल,
परमसत्य को..!
जैसे कर रही हो मंथन,
मिल जाए अमृत..!
मिट जाएं जग के संपीडन!!
नष्ट हो जड़ता आए परिवर्तन।
लड़ रही अस्तित्व की जंग,
क्षणभंगुर तरंग !!
तरंगों का प्रत्यावर्तन...
कराता अस्थिरता का बोध।
हर मिटती तरंग करती इशारा...!
नहीं बदलता कुछ
किसी के मिटने से,
यथावत चलता संसार..!
तरंग तोड़ती जड़ता का
प्रसार।
कराती असारता का बोध!
मिटाती संशय!
जगाती आत्मबोध!
क्षणभंगुर जीवन में..
सत्य है बस आत्मा !!

अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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