व्यथित मानवता

मानवता शुष्क होती जा रही है,
चमक अपनी खोती जा रही है।
स्वार्थ का आवरण लिपटा जबसे,
तबसे अंधेरे में खोती जा रही है।

करूणा के बादलों ने है मुख मोड़ा,
दया और सेवा ने भी साथ छोड़ा।
अहंकार के ओले गिरने लगे हैं,
बढ़ती घृणा ने कहीं का न छोड़ा।

सद्भावना का अकाल पड़ा है,
आदमी ,आदमी से कैसे दूर खड़ा है।
लगती है कीमत रिश्तों की यहां पर,
दुर्भावना का दैत्य सिर उठाए खड़ा है।

सुलगती दिलों में ईर्ष्या की अग्नि,
जंगल को जलाती जैसे दावाग्नि।
उठती हैं लपटें,नैतिकता भस्म होती,
मानवता सिर पटक कर है रोती।

सिसकती है खंडहरों में ढूंढ़े सहारा,
मानव ने किया मानवता से किनारा।
विधवा हुई वह किस्मत की मारी,
तलवार लटकी उस पर दुधारी।

कभी सड़क पर वह कुचली जाती,
कभी सरेआम उसकी इज्जत है लुटती।
कभी भटकती है दर-दर हाथ फैलाए,
बेआबरू मानवता हर पल है होती।

फिर भी है बैठी उम्मीद लगाए,
कभी उसका सूरज निकल के तो आए।
कभी धुंध ये अवश्य ही हटेगी,
मानवता फिर से सुहागन बनेगी।

अभिलाषा चौहान

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