बोझ तो बोझ ही होता है...!

बोझ,
किसी भी सूरत में
होता है बोझ।
बोझ,
मन का
मार देता मन को।
ढोते लाश ,
जीते मर-मर कर।
बोझ,
जब बनती बेटी,
बदल जाती किस्मत,
बेचारी की।
पराया धन बनकर,
रहती मां-बाप के घर।
ससुराल में भी,
नहीं अपनाई जाती,
होती पल-पल प्रताड़ित।
बोझ समझ,
बेटियों को गर्भ में ही,
मार दिया जाता..!!
या फेंक दिया जाता,
मरने को...!!
झाड़-झंखाड़ में।
बोझ,
समझना,
किसी कार्य को,
तो होता मुश्किल...,
उसको करना..,
जैसे अनचाहे ही
ढोते हों बोझा..!
मर जाता उल्लास..!
मन का,
खत्म होती,
नया करने की चाह !!
घिसटते हुए,
रोज मरते थोड़ा-थोड़ा,
मर जाती..!
जीने की आस..!
बस जीते रहते हैं..!
अनचाहे,
ढोते बोझा..!
जीवन का।
नाकारा..!
आलसी...!
अकर्मण्य..!!
बनते बोझ,
परिवार,समाज,देश पर!!
बोझ बस बोझ होता है,
जो बदल देता,
फितरत इंसानी...!!


अभिलाषा चौहान
स्वरचित

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