पीर बनती पर्वती है
देख जलते घर किसी के
रोटियाँ उनपर न सेंकों
टूट बिखरे देख सपने
दाँव उनपर यूँ न फेंकों।
लीलती हैं प्राण कितने
भूख ये जो बलवती है
सूखते नयनों के आँसू
पीर बनती पर्वती है
मनुजता सिर को पटकती
धूर्त जब मिलते अनेकों।।
सांत्वना के बोल सुनते
वर्ष कितने बीत जाते
शून्य जीवन हाथ खाली
भेंट में बस मौन पाते
झेलते हैं रोज संकट
घाव मिलते हैं अनेकों।
मूक सी इस व्यवस्था ने
छीन ली हैं सब उमंगे
रीति नीति जड़ बनी है
कब उठी उनमें तरंगें
अटकलों की व्यंजना ये
लिख रही चिट्ठी अनेकों।।
अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'
स्वरचित मौलिक
बहुत सुंदर!!!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏
हटाएंलाज़बाब सृजन
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया दीदी🙏
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-12-2020) को "ले के आयेगा नव-वर्ष चैनो-अमन" (चर्चा अंक-3928) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
जवाब देंहटाएंसमसामयिक।
जवाब देंहटाएंसुंदर व्यंग्यात्मक रचना।
सादर।
सहृदय आभार सखी 🌹 सादर
हटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏 सादर
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार सखी 🌹
हटाएंमूक सी इस व्यवस्था ने
जवाब देंहटाएंछीन ली हैं सब उमंगे
रीति नीति जड़ बनी है
कब उठी उनमें तरंगें
अटकलों की व्यंजना ये
लिख रही चिट्ठी अनेकों।।
वाह!!!!
लाजवाब नवगीत।
मारक , प्रभावी लेखन । बहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीया 🙏
हटाएंवाह वाह
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय 🙏
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