आस ढलती साँझ जैसी


आस ढलती साँझ जैसी

बढ़ रहे इन फासलों से

नैन गगरी छलछलाती

टूटते इन हौंसलों से।।


शुष्क होती भावना अब

है हृदय पाषाण सा क्यों

कर्ण भेदी चीख सुनकर

मूक बन रहते सभी ज्यों

जब मसलती कली कोई

रात की इन हलचलों से।।


द्वार पर बैठी निगाहें

ढूँढती फिरती ठिकाना

आँख का तारा कभी तो

प्रेम से चाहे बुलाना

पीर की विद्युत चमकती

कष्ट के इन बादलों से।।


टूटती ये चूड़ियाँ भी

घाव तन के हैं दिखाती

माँग में सजता लहू जब

धर्म वे अपना निभाती

साँस घुटती प्रीत की जब

बोझ बनते इन पलों से।।


अभिलाषा चौहान'सुज्ञ'







टिप्पणियाँ

  1. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🌹 सादर

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  2. अप्रतिम सृजन प्रिय अभिलाषा जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सहृदय आभार आदरणीय 🙏🙏 सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंदर और मार्मिक सृजन सखी ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  5. आ अभिलाषा जी, बहुत सुंदर सृजन!
    नैन गगरी छलछलाती
    टूटते इन हौसलों से।
    बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं। हार्दिक साधुवाद!
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    सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी आदरणीय आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए उत्साह जनक है। सादर

      हटाएं
  6. यह एक बड़ी सलाह है! मैंने वास्तव में इस लेख का आनंद लिया।

    जवाब देंहटाएं

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